पिछले लगभग तीन महीने से दिल्ली एनसीआर में प्रदूषण का स्तर खतरनाक सीमा तक फैला हुआ है। वो बात अलग है कि इस बात की जानकारी भी हमें इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के माध्यम से ही मिलती है और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए बहुत सी प्राथमिकताएं है। जब सारी प्राथमिकताएं समाप्त हो जाती है तब उनको प्रदूषण का समाचार दिखाने का मन करता है। अक्टूबर नवंबर में प्रदूषण फैला तो देश भर में राजनीति गरम हो गई, क्योंकि किसान खेतों में पराली जलाते हैं। उसके कारण से दिल्ली एनसीआर में प्रदूषण का स्तर इन दिनों बढ़ रहा है। फिर शुरू हुआ इस बात का राजनीतिक फायदा उठाने का सिलसिला। जिन राज्यों में जो पार्टी विपक्ष में है पूर्ण सत्ता रूढ़ दलों पर उनकी नाकामी ठिकरा फोड़ते रहते हैं।
दरअसल दिल्ली एनसीआर में प्रदूषण क्यों बढ़ता है इसकी सही वजह ना तो कोई भी विभाग जानने के लिए और ना ही उस पर कोई कार्यवाही करने के लिए गंभीर है। कुछ गिने चुने हथकंडे सरकारी तंत्र ने अपनाने का रिवाज बनाया हुआ है, उन्हीं को अपनाते रहते हैं। कभी कारों पर ओड इवन का फार्मूला लगाकर, कभी BS-4 की गाड़ियों को बैन करके और कभी Grap-4 लगाकर और Grap-4 लगने के बाद शुरू होता है सरकारी तंत्र का तांडव। क्योंकि इसके अनुसार बहुत सी चीजों पर प्रतिबंध लग जाता है। हमारी व्यवस्था में प्रशासन के लिए सबसे आसान है चीजों पर प्रतिबंध लगाना जैसे-भवन निर्माण के सभी कार्यों पर प्रतिबंध, डीजल की गाड़ियों पर प्रतिबंध, BS-4 गाड़ियों पर प्रतिबंध और जनरेटर के इस्तेमाल के साथ न जाने किन-किन चीजों पर प्रतिबंध लग जाता है। क्योंकि प्रतिबंध के साथ-साथ शुरू होता है प्रशासन का एक्टिव मोड। जिससे बनती है प्रशासन की दिहाड़ी। प्रतिबंधित कार्यों के होने पर सरकारी तंत्र आपका चालान काटेगा तो सरकारी खजाना भरा जाएगा और यदि नहीं काटेगा तो उसकी अपनी जेब भरी जाएगी और सरकार का सबसे पसंदीदा कार्य है चालान काटना। मुझे आज तक यह समझ में नहीं आया कि चालान काटना पर्यावरण के सुधार की दिशा में कैसे उपयुक्त कदम है। जबकि समय-समय पर आई बहुत सी विशेषज्ञों की रिपोर्ट ने यह साबित किया है कि दिल्ली एनसीआर में बिगड़े प्रदूषण के पीछे गाड़ी के प्रदूषण का हाथ बहुत कम है। धूल के कणों का हाथ बहुत ज्यादा है। किंतु धूल के कारण खत्म करने के लिए सरकार कोई भी प्रयास नहीं करती। रेत को उठाने के लिए आज भी सुपर साक्षर मशीन का इस्तेमाल ना के बराबर है। आज भी सरकारी कार्यों में सड़क किनारे किए जाने वाले गड्ढ़ों के ढेर सारेआम देखे जा सकते हैं। किंतु उन सब कार्यों में ऊर्जा लगाना सरकारों की प्राथमिकता नहीं है। क्योंकि उनसे कुछ कमाई नहीं होती। सबसे आसान कार्य है प्रतिबंध लगाना और प्रतिबंधित कार्यों पर मोटा चालान वसूल करना। जो सरकारों को सबसे ज्यादा शूट करता है।
एक आंकड़े के मुताबिक पर्यावरण के नाम पर अलग-अलग मद्द में जो कर सरकारें वसूलती हैं उनसे सरकारों को लगभग 8 से 10 हज़ार करोड रुपए की आय होती है। एक जागरूक नागरिक होने के नाते यह जानने का अधिकार है कि इतना पैसा सरकारी खजाने में डालने से क्या पर्यावरण सुधार हुआ। दिल्ली में भारी व्यवसायी वाहनों के प्रवेश पर सरकार पर्यावरण कर लेती है। एक करोड़ से महंगी कारों पर सरकार ग्रीन टैक्स लेती है और न जाने किन-किन चीजों पर कर लेती है और इनके साथ-साथ Grap-4 लगने के बाद जो चालान काटे जाते हैं उनके द्वारा इकट्ठी की गई राशि भी इसमें सम्मिलित है। मेरा मानना है कि प्रदूषण के नाम पर किसी भी प्रकार से प्रत्यक्ष व प्रोक्ष रूप से इकट्ठी की गई धनराशि को पर्यावरण के सुधार में ही लगाया जाए। उसको सरकारी खजाने का हिस्सा ना बनाया जाए। तभी पर्यावरण सुधार के क्षेत्र में कुछ गंभीर परिणाम आने की संभावना है। अन्यथा कभी पराली और कभी कुछ ओर बहाना लेकर ऐसे ही चालान होते रहेंगे और एनसीआर वासी इस गैस चैंबर में जीने को मजबूर रहेंगे।
Comments