पिछले दिनों न्यू वल्र्ड हैल्थ और एल आई ओ गलोबल नाम की एक संस्था द्वारा जारी की गई एक रिपोर्ट में कुछ आश्चर्यजनक सत्य सामने आये और यह सत्य न केवल आश्चर्यजनक हैं बल्कि इनके सामने आने के बाद कुछ मूलभूत सवाल हमारे सामने आये हैं। संस्था की रिपोर्ट के अनुसार पिछले 14 सालों में 61000 भारतीय अरबपतियों ने भारत को छोड़ दूसरे देशों की नागरिकता ली है। इन आंकड़ों का यदि विश्लेषण करें तो पता चलता है कि ऐसा नहीं है कि यह स्थिति सिर्फ भारत के साथ ही है, विश्व में अन्य देश भी हैं जहां के अरबपति पलायन कर रहे हैं। आंकड़ों के अनुसार ब्रिटेन से लगभग 1.25 लाख, चीन से करीब 91,000, फ्रांस से 42000, इटली से 23000, रूस से 20,000, इंडोनेशिया 12000, साऊथ अफ्रीका से 8000 हैं। रिपोर्ट के अनुसार भारतीय करोड़पति खास तौर पर संयुक्त अरब अमीरात ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया और अमेरिका की नागरिकता लेना पसंद करते हैं। अन्य देशों की सामाजिक, राजनैतिक और वहां के लोगों की मानसिक स्थिति की चर्चा करने की बजाय हमें अपने देश के पलायन करने वाले अरबपतियों की मनोस्थितियों को थोड़ा अध्ययन करने का प्रयास करना पड़ेगा। क्योंकि इस 14 साल में देश के जो भी प्रशासक रहे हैं चाहे वो अटल बिहारी वाजपेयी जी या मनमोहन सिंह पार्ट 1 और पार्ट 2 रहे, सभी ने विदेशी निवेशकों को और उद्योगपतियों को देश में उद्योग लगाने और देश में आने की वकालत ही नहीं कि अपितु इनको लुभाने के लिये बड़े-बड़े प्रपंच भी किये। उससे विदेशी निवेश देश में कितना आया, वह पिछले दस वर्षों में जी डी पी का घटता हुआ दर दर्शा रहा है। डोलर के मुकाबले में रूपये की गिरती हुई कीमत उन प्रयासों की पोल खोल रही है लेकिन सबसे ज्यादा हैरानी की बात पिछले लगभग सवा साल में होती है जब देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी विदेशों में जा-जा कर वहां के उद्योगपतियों को भारत में आने और निवेश करने का न्यौता ही नहीं दे रहे बल्कि ‘मेक इन इंडिया’ नामक अभियान की भी शुरूआत कर चुके हैं।
इन हालातों की गहराई से समीक्षा करें तो कुछ सवाल सामने आते है। सबसे पहला सवाल क्या पूंजीपति इस देश में अपने आपको असुरक्षित महसूस करता है? क्या पूंजीपति इस देश की कर व्यवस्था से परेशान है? सरकारी तंत्र का व्यवहार उद्योगपतियों व पूंजीपतियों के प्रति सकरात्मक नहीं है ? क्या राजनेता पूंजीपतियों का चुनाव सिर्फ चुनाव में उनसे आर्थिक मदद लेने तक करते हैं और सत्ता आसीन होने के बाद उनको अपने वोट बैंक माने जाने वाले गरीब और आर्थिक रूप से अति पिछड़े हुए लोगों की सहानुभूति और सहयोग ज्यादा प्राथमिक लगता है। कोई भी अर्थव्यवस्था समाज के इन दोनों वर्गों के बिना नहीं चल सकती। समाज में और यूं कहिए कि राष्ट्र निर्माण में जितना योगदान गरीब, किसान, मजदूर का होता है उतना ही योगदान उद्योगपति और व्यवसायियों का होता है। किसान, मजदूर, गरीब, रेहड़ी रिक्शा वालों के हितों की रक्षा करना सरकार की मुख्य प्राथमिकता है। इसमें इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन पूंजीपति, उद्योगपति और व्यवसायियों में भय का वातावरण, अनिश्चितता का वातावरण पैदा करके दूसरे वर्ग की वाहवाही नहीं जीतनी होगी। आज देश में सारा सरकारी तंत्र उद्योगपति और पूंजीपतियों को एक अपराधी के तरह से देखता है और कहीं न कहीं उसको सरकारी नीतियों और कर व्यवस्था में चोर मानता है। हालांकि जो भी राजनीतिक पार्टी गरीबों की और किसानों की दुहाई देकर सत्ता आसीन हो गयी। वह सत्ता आसीन होने के बाद उन गरीबों और किसानों का कितना भला कर पायी है ये 66 साल में गरीबों और किसानों की हालत इस बात को दर्शाती है। लेकिन पिछले डेढ़ साल से जो सरकार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी के नेतृत्व में दिल्ली में आसीन है, उस सरकार का सपना है ‘मेक इन इंडिया’ और सरकार प्रयासरत भी है कि देश में उत्पाद बढ़े और उद्योगपतियों को एक सकरात्मक माहौल मिले जिससे गरीबों और मजदूरों को रोजगार के अवसर और अधिक मात्रा में मुहैया हों और गरीब, गरीबी रेखा से ऊपर उठें। हालांकि आंकड़े दर्शाते हैं कि पिछले कुछ सालों में देश में करोड़पतियों की संख्या भी बढ़ी है। और गरीबी रेखा से ऊपर उठने वालों की संख्या बढ़ी है। आंकड़े बताते हैं कि पिछले कुछ सालों में भारत में करोड़पतियों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है , भारत में 2010 में 1.53 लाख डालर मिलियनेयर थे जो 2013 में 1.96 लाख हो गये तथा 2014 में इनकी संख्या बढ़कर 2.5 लाख हो गयी। किन्तु अरबपतियों का देश से पलायन या दोहरी नागरिकता चिन्ता का विषय है। हमें उनकी मानसिकता को समझ कर यदि वो पलायन भय के कारण है तो उस भय को खत्म करना होगा। जब तक एक सुरक्षा और सहयोग का माहौल उद्योगपतियों के सामने नहीं होगा तब तक न तो अर्थव्यवस्था सुदृढ़ हो पायेगी और न ही प्रधानमंत्री जी का ‘मेक इन इंडिया’ का सपना पूरा हो पायेगा।
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