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आज के भारत में बदलती उच्चतर उच्चतर शिक्षा की स्थिति

  • Writer: शरद गोयल
    शरद गोयल
  • Jun 1, 2024
  • 6 min read

हम विश्व गुरु थे, इतिहास साक्षी है । यह बात हमारे लिए माम प्रेरणा की बात है क्योंकि आज हमारी स्थिति कहां है, इस बात पर विचार और मंथन अवश्य करना चाहिए । विश्व पटल पर उच्चतर शिक्षा एवं शोध की दृष्टि से हमारी स्थिति हम सबको ज्ञात है । निर्धनता हमारी, अकाल हमारे, प्राकृतिक आपदाएं हमारी और शोध भी भारतीय मूल के मनीषियों ने किया । परंतु विदेशी धरती पर, विदेशी प्रयोगशाला में और विदेशी बनकर विश्व के सर्वोच्च नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हुए । इसी प्रकार गरीब के नाम ने हमारे राजनेताओं को सत्ता के शीर्ष आसन पर पहुंचाया है । अमृत महोत्सव के बाद भी हम अभी तक कुछ सामाजिक बुराइयों को समाप्त नहीं कर पाए हैं- जैसे जाति-प्रथा, बेरोजगारी, बेकारी, भूख, असमानताएं, विषमताएं, भ्रष्टाचार, जागरूकता का अभाव, अशक्त व असहायों का सशक्तिकरण, रोजगार परक कौशल, विकास के साथ उत्पन्न प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन आदि । भारत बहुत से कुचकों को तोड़कर आज विश्व की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बनी है और हमारी आर्थिक विकास की दर भी विश्व में सबसे अधिक है यद्यपि विश्व में भौगोलिक और राजनीतिक दशाएँ अवरोध उत्पन्न कर रही हैं । परंपरावादी चिंतक, आर्थिक विकास की दृष्टि से भौतिक पूंजी दोनों को ही विकास का पूरक मानते हैं । नीति-निर्धारक चाहते हैं कि भारत विश्व की ज्ञान एवं आर्थिक स्थिति आर्थिक शक्ति का प्रमुख केंद्र बने । 


शिक्षा एवं स्वास्थ्य दोनों ही सामाजिक सेवाएं योग्यता संबंधित सेवाएं हैं । जो सभी को उपलब्ध होनी चाहिए और इन सेवाओं को बाजार शक्तियों पर नहीं छोड़ना चाहिए । इस सेवाओं पर अपवर्जिता का सिद्धांत लागू नहीं होता । बाजार शक्तियाँ वस्तु अथवा सेवा का उपभोग केवल उन लोगों तक सीमित रह जाता है । जिनके पास पर्याप्त आर्थिक साधन अथवा  क्रय शक्ति उपलब्ध हो । ऐसी स्थिति में साधनों के अभाव में इन सेवाओं के उपभोग से वंचित रह जाएंगे, यद्यपि उनमें पात्रता है । शिक्षा प्राप्त करने के लिए उत्सुक हैं और योग्य हैं और आर्थिक साधनों का ना होना मूलभूत आवश्यकता की पूर्ति नहीं कर पाते । आवश्यकता की तीव्रता और बौद्धिक क्षमता यह मांग करती है, ये दोनों सेवाएं ही सार्वजनिक क्षेम द्वारा पूरी की जानी चाहिए । यह दोनों इसी कारण सार्वजनिक वस्तु मानी जाती हैं ।


स्वतंत्रता के बाद दूसरी पंचवर्षीय योजना में आधारभूत संरचना के विकास की बात सोची गई और यहां औद्योगिक विकास की धारणा भी सरकार द्वारा क्रियान्वयन में लाई गई । भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, प्रबंध संस्थान, चिकित्सा विज्ञान से संबंधित शोध संस्थान और विश्वविद्यालय, अनेक महाविद्यालय और विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई । जिससे विकास की संभावनाओं को साकार करने के लिए आवश्यक मानवीय संसाधनों की पूर्ति उपलब्ध हो सके । उस समय पूर्ति की कमी को आयात के माध्यम से भी पूरा किया गया । यहां से शिक्षा की विभिन्न विधाओं और शोध को प्राथमिकताएं दी जाने लगी । शिक्षा और स्वास्थ्य दोनों ही प्रमुख रूप से सार्वजनिक क्षेत्र तक केन्द्रित थे तथा निजी क्षेत्र भी इन सेवाओं को लोक-कल्याण तक सीमित रखता था ।

आर्थिक सुधारों के बाद शिक्षा और स्वास्थ्य दोनों ही क्षेत्रों में एक क्रांतिकारी परिवर्तन आया है । बढ़ती हुई मांग को पूरा करने के लिए निजी और सरकारी दोनों क्षेत्रों की साझेदारी का मॉडल के रूप में स्वीकार किया गया । अकेला सार्वजनिक क्षेत्र इस मांग को पूरा करने में समर्थ नहीं था । निजी क्षेत्र में इस अवसर को स्वीकार किया और उद्देश्य लोक कल्याण न होकर लाभ-अर्जन हो गया । सरकार ने शिक्षा, स्वास्थ्य और शोध से संबंधित क्षेत्र में अपना पैसा लगाने वाले उद्यमियों को भूमि का आवंटन बहुत सस्ती दर पर की गई, उद्देश्य यह था कि इन सेवाओं को उचित दर पर समाज के निम्नतम वर्ग को उपलब्ध कराया जा सके । समाज के वंचित वर्ग और गैर-लाभकारी वर्ग को इन सेवाओं को उनकी क्षमता अथवा नि:शुल्क दरों पर उपलब्ध कराया जा सके । निजी क्षेत्र की यह प्रतिबद्धता थी । विदेशों में भारत के बहुत से दाम उच्चतर शिक्षा के लिए जाने लगे और भारत में भी प्रमुख रूप से अफ्रीका के देशों से और कुछ अंश तक अरब देशों से भी विद्यार्थी पढ़ने आने लगे । यहां बाजार-वाद का सिद्धांत क्रियाशील हो गया । उच्चतर शिक्षा क्षेम, भारत के लिए विकसित देशों के लिए एक आकर्षण का केंद्र बन गया क्योंकि विश्व की मानक संस्थाएं प्रमुख रूप से इन्हीं देशों में केन्द्रित थी ।


अखिल भारतीय उच्चतर शिक्षा सर्वेक्षण 2019-20 रिपोर्ट के अनुसार 1000 विश्वविद्यालय, 42000 महाविद्यालय और 12000 स्वत: पोषीय/ स्वत: वित्तीय संस्थान होने के कारण भारत उच्चतर शिक्षा के क्षेम में विश्व का नामांकन औसत अनुपात 38% है और भारत का सकल नामांकन अनुपात 27% होने के कारण तुलनात्मक दृष्टि से कम है उच्चतर शिक्षा के क्षेत्र में भारत में पाठ्यक्रम में परिवर्तन बदली हुई परिस्थितियों के अनुसार नहीं हुआ है और उच्चतम शिक्षा का अनुप्रयोग जीवन के विभिन्न क्षेत्रों की समस्याओं को हल करने के लिए कम हुआ है । पाठ्यक्रम में संशोधन एवं संवर्धन एक सतत प्रक्रिया होनी चाहिए । अध्यापकों को भी समय-समय पर प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए जिससे वे अपने आपको बदली हुई परिस्थितियों के अनुसार सक्षम बना सकें । आधारभूत संरचना को भी सुदृढ़ करना पड़ेगा । उच्चतम शिक्षा को उपादान और उत्पादन की  प्रक्रिया से संतुलित करना होगा क्योंकि स्कूल स्तर पर प्राथमिक स्तर से माध्यमिक स्तर तक आते आते काफी बच्चे प्रणाली से बाहर निकल जाते हैं । यह गहन चिंता और अध्ययन का विषय है । इसी प्रकार उच्चतर  शिक्षा से जो उत्पाद प्राप्त हो, उसे इस वाक्य का सामना ना करना पड़े कि आप रोजगार के योग्य नहीं है ।


अप्रैल 2023 में भारत जनसंख्या की दृष्टि से चीन को पीछे छोड़कर आगे निकल गया है और विश्व में प्रथम स्थान प्राप्त करने का अनावश्यक गौरव प्राप्त किया है । सबसे बड़ी युवा शक्ति यह प्रकृति प्रदत उपहार है । चीन और भारत दोनों ही देशों की कुल जनसंख्या विश्व की लगभग 67 प्रतिशत है । परंतु चीन की प्रतिव्यक्ति आय हम से लगभग 6 गुना अधिक है । विकास के प्रमाणिक निर्धारकों की दृष्टि से भी भारत की सापेक्षिक स्थिति बहुत सुदृढ़ नहीं है जैसे मानवीय विकास सूचकांक, विश्व भूख सूचकांक, पारदर्शिता एवं भ्रष्टाचार सूचकांक, लिंग समता सूचकांक, शिशु मृत्यु दर, मातृत्व मृत्यु दर, बेरोजगारी दर आदि । विश्व आर्थिक फौरम के अनुसार भारत में प्रत्येक वर्ष 1.3 करोड़ कार्यशील जनसंख्या में वृद्धि होती है । परंतु प्रबंध के क्षेत्र में 25%, अभियांत्रिकी क्षेत्र में 20% और सामान्य रूप से मात्र 10% स्नातक ही रोजगार प्राप्त करने कौशल में दक्षता रखते हैं । युवा शक्ति को हम 75 वर्ष बाद भी प्रतियोगिता की दृष्टि से समर्थ और सक्षम नहीं बना पाए हैं । इसी कारण युवा शक्ति का लाभांश प्राप्त नहीं कर पाये हैं । ऐसा वरदान बहुत कम देशों को प्राप्त होता है । इसी कारण हम 2023-24 तक भारत को ST की अर्थव्यवस्था बनाने का लक्ष्य पूरा नहीं कर पायेंगे ।


1986 के बाद वर्ष 2020 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति का एक विस्तृत दस्तावेज तैयार हुआ है । जिसका उद्देश्य शिक्षा के विभिन्न स्तरों के बीच संतुलन एवं सामंजस्य बनाना है । उच्चतर शिक्षा को अधिक लोचशील और विश्व में बदलती हुई परिस्थितियों के संदर्भ सहित बनाने का प्रयास किया गया है । निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों को न्यूनतम अह्र्ताओं के साथ नियामक संस्थाओं द्वारा निर्धारित नियमों के अनुकूल कार्य करना होगा । उच्चतर शिक्षा को इस प्रकार रूपांतरण करने का प्रयास है । जिससे विश्व द्वारा निर्धारित मापदंडों के अनुसार यह प्रतियोगिता का सामना कर सके और विश्व में निर्धारित मापदंडों के अनुकूल बन सके । नियामक संस्था का मार्गदर्शन एवं आवश्यक सक्रिय हस्तक्षेप बहुत महत्वपूर्ण है । शिक्षा क्षेत्र  मानवीय संवेदनाओं के साथ जुड़ा हुआ होता है । तथा समाज में सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक संदर्भों के साथ संबंधित होता है । मस्तिष्क को तर्क संगनत विश्लेषण और वैज्ञानिक सोच परक बनाना होगा । भारत विविधताओं और विषमताओं का देश है । जहां बहुत लोग वंचित, शोषित और पीड़ित हैं । परंतु उनमें आगे बढ़ने की संभावनाएं हैं, योग्यता है और चाह है  आगे बढ़ने की । ऐसे लोगों को बिना किसी भेदभाव के आगे बढ़ने के अवसर प्राप्त होने चाहिए । जिससे संभावनाओं को उपलब्धियों में परिवर्तित किया जा सके । अपेक्षाएं हैं कि हमारी शिक्षा व्यवस्था ऐसी सम्पुष्ट बनेगी कि विदेश जाकर उच्चतर शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों की संख्या कम होगी और विदेशों से आने वाले विद्यार्थियों की संख्या में वृद्धि होगी । नई शिक्षा नीति इस दृष्टि से एक मील का पत्थर सिद्ध होगी ।

मानवीय और भौतिक दोनों ही पूंजी को प्राप्त कर विश्व में भारत एक आर्थिक तथा ज्ञान शक्ति बनेगा । इसी विश्वास के साथ-


दिल न उम्मीद तो नहीं, ना काम ही तो है,

लंबी है नाम की शाम है, मगर शाम की तो है ।


 


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