बुधवार की दोपहर दिल्ली में आम आदमी पार्टी की रैली के दौरान राजस्थान के एक किसान गजेन्द्र द्वारा पेड़ पर लटककर आत्महत्या के मामले से एक बात तो सामने आ गयी है कि राजनीतिक लोगों का संवेदनशीलता से कोई नाता नहीं है। जहां तक सवाल आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल का है, इन्होंने लगभग दो साल के अपने सार्वजनिक जीवन में लोगों को अपने व्यक्तित्व के इतने दोहरे चेहरे दिखाये हैं कि जिनको सोचकर भी ऐसा लगता है कि अगर एक साफ सुथरा आदमी राजनीति में आने की अपनी हवस को पूरा करने के लिये इतना संवेदनहीन हो जाता है कि उसकी आंखों के सामने कोई व्यक्ति पेड़ से लटककर जान दे रहा है और वह व्यक्ति मंच से उतरकर उस तक जाने का प्रयास तो दूर अपनी रैली को कुछ मिन्टों के लिये रोकने का भी प्रयास नहीं करता। अगर मैं गल्त नहीं तो ये वही केजरीवाल है जो लोगों की कटी मीटर की तार जोड़ने बिजली के खम्भे पर चढ़ जाता था। यदि इनमें आम आदमी के प्रति इतनी संवेदनशीलता थी तो यह कल की घटना में बैठा व्यक्ति केजरीवाल तो नहीं हो सकता। दरअसल इनके व्यक्तित्व की कई चीजें ओर याद आती हैं। आपको याद होगा कि वो दिन जब केजरीवाल अपनी पुरानी सरकार के मुख्यमंत्री काम के दौरान जन्तर-मन्तर पर जनवरी में धरने पर बैठे थे, वह समय दिल्ली के लिये काफी ठण्ड वाला होता है। अपने साथ धरने पर बैठे लगभग 5 हजार आदमियों की चिन्ता करे बगैर सुबह-सुबह अपनी पत्नी द्वारा लाये गये आलू के गर्म परांठे व चाय अपनी गाड़ी में बैठकर पीने लगे। उन्होंने एक बार भी नहीं सोचा कि साथ बैठे 5 हजार आदमियों ने भी कुछ नहीं खाया है। दिल्ली पुलिस के जवानों से गणतंत्र दिवस पर परेड के दौरान तिरंगे के नीचे खड़े होकर दिल्ली पुलिस को ही कोसना, और अभी हाल ही में प्रकाशित हुई इनकी ओडियो कैसेट दर्शाती है कि किस तरह इन्होंने राजनीति में वो घिनौनापन किया जो अन्य पुरानी पार्टियां करते हुये चार बार सोचेंगी। हैरत अंगेज बात हो यह है कि मंच पर आसीन मनीष सिसोदिया व कुमार विश्वास जो कि प्रख्यात कवि भी जाने जाते हैं और कवि की एक धारणा है कि वह बहुत संवेदनशील होता है, तो इन सबकी संवेदनशीलता उस समय कहां गयी? क्या सत्ता का नशा इतना गंदा होता है कि उसके चढ़ने के बाद इंसान, इंसान नहीं रहता या इंसानों की कीमत इन राजनेताओं के लिये कीड़े मकौड़ों से ज्यादा नहीं है। कुमार विश्वास ने तो हद ही कर दी जब यह कहा कि केजरीवाल को मंच से उतरकर जाना चाहिये था यदि आगे से ऐसा कुछ होगा तो केजरीवाल जरूर जायेंगे। ऐसी घिनौनी टिप्पणी तो कोई अनपढ़ गंवार भी नहीं करता और विश्वास तो ठहरे शब्दों के जादूगर।
इस सारे घटनाक्रम के बाद अब शुरू हो गया राजनैतिक रोटियां सेकने का सिलसिला। विरोधियों को मुद्दे मिल गये, वह अपनी दुकानें चमकानें का प्रयास कर रहें हैं। मजे की बात तो यह है कि अभी एक महीने पहले तक योगेन्द्र यादव जो कि कुमार विश्वास के कट्टर समर्थक थे, वह भी अब इस सारे घटनाक्रम की आलोचना करने लगे। दरअसल इन नेताओं पर कोई असर नहीं पड़ता। अगर इनके केजरीवाल से अच्छे संबंध होते तो ये उनके बचाव में बोलते। संबंध खराब होने पर उसी चीज की आलोचना करना यह राजनेताओं का मुख्य काम बन गया है। खबर टी.वी में दो दिन चलेगी क्योंकि संसद का अधिवेशन चल रहा है तो वहां भी चर्चा हो जायेगी। इस कारण हो सके तीन दिन खबर गर्म रहे उसके बाद कोई और बड़ी खबर इस खबर को खा जायेगी। गजेन्द्र को परिवार पूरा जीवन गजेन्द्र को याद करता रहेगा और राजनेता अगले मुद्दे की ओर चले जायेंगे। जनता फिर इन्हीं असंवेदनशील लोगों को अपना नेता चुनेगी, भागयविधाता चुनेगी, बदलेगा कुछ नहीं। कुछ नेताओं ने इस सारी घटना को तोड़ मरोड़ कर किसानों की खुदकुशी से जोड़ने को प्रयास किया। कुछ राजनेताओं ने तो गजेन्द्र की मानसिक हालत ही खराब बता दी। गजेन्द्र की अंतिम संस्कार में राजनेताओं का जमावड़ा हो गया।
राजस्थान सरकार ने 5 लाख का मुआवजा दे दिया। लोकसभा व राज्यसभा में हंगामा भी हो गया। प्रधानमंत्री कार्यालय का शोक संदेश भी आ गया। गृह मंत्री ने जोरदार बयान भी सदन में दे दिया। भारतीय जनता पार्टी का रोष प्रदर्शन व केजरीवाल के पुतले फूंकने का कार्यक्रम भी हो गया। मेरे ख्याल से अब कोई औपचारिकता नहीं बची। अब आम जन को भूल जाना चाहिये कि गजेन्द्र कौन था व इन्तजार करना होगा एक बड़ी खबर का जो न्यूज चैनलों की टी.आर.पी. को संभाल कर रखेें और राजनेताओं को संसद में शोर मचाने का कोई ओर मुद्दा मिले जहां तक गजेेन्द्र के परिवार का सवाल है उनको उन 5 लाख रूपयों के साथ गजेन्द्र की फोटो व यादों के सहारे उनको उनके हाल पर ही छोड़ देना चाहिये।
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