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छुट्टियों से हो छुटकारा तभी हो पायेगा विकास

Writer's picture: शरद गोयल शरद गोयल

आज देश में चारों ओर विकास की चर्चा होती है। सत्तारूढ़ दल विकास करने का दावा करता है तो विरोधी दल विकास न होने का दावा करते हैं। ऐसा नहीं कि आजादी के 70 वर्षों में देश ने विकास नहीं किया और विकास की योजना नहीं बनाई लेकिन इस सबके पीछे अक्सर चारों तरफ से यह आवाज आती है कि सरकारी कार्यालयों में हर काम के लिये बहुत समय लगता है। मेरा ऐसा मानना है कि सरकारी दफ्तरों में काम न होने या देर से होने के दो मुख्य कारण हैं - पहला सरकारी कर्मचारियों में काम के प्रति जवाबदेही का न होना । दूसरा सरकारी कार्यालयों में आये दिन छुट्टी का होना। पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी ने सप्ताह में छः दिन काम का जो कानून बनाया उससे साप्ताहिक अवकाश दोगुना हो गये और सरकारी काम की गति धीमी हो गयी। आज छुट्टियों का आलम यह है कि साल के 365 दिनों में लगभग 105 साप्ताहिक अवकाश, 3 राष्ट्रीय अवकाश, कुल मिलाकर 42 पब्लिक होली डे और इसके अलावा एक कर्मचारी को मेडिकल लीव, अर्नड लीव, स्पेशल डिसऐबिलिटी लीव, हाफ पे लीव, स्टडी लीव आदि महिलाओं की स्थिति में मेर्टनिटी लीव, चाइल्ड केयर लीव, चाइल्ड अडोपशन लीव, मिसकेरिज (गर्भपात) लीव इत्यादि। यदि सबको मिलायें तो स्थिति गंभीर निकल कर आती है। अध्यापकों के मामलों में साल में दो महीने की छुट्टी और हो जाती है। न्यायालयों में भी एक महीने की छुट्टी और हो जाती है। कुल मिलाकर लबोलवाब यह निकलता है कि देश में 150 दिन से ज्यादा काम नहीं होता। हरियाणा जैसे राज्य में अब इन 150 दिनों की बात करें तो हाइकोर्ट में तारीक के दौरान पूरे हरियाणा के लोगों को चण्डीगढ़ जाना होता है या चण्डीगढ़ से कोई उच्च अधिकारी जिले में आकर मिटिंग ले रहा होता है। लगातार चार दिन छुट्टी पड़ना आम नागरिक के लिये कितनी परेशानी का कारण बन जाती है।


दरअसल छुट्टियों का प्रावधान लगभग हर देश व हर व्यवस्था में है लेकिन उन्नत देशों में सरकारी कर्मचारियों व अधिकारियों में काम की जवाबदेही अवश्य होती है जिसका हमारे देश में बिल्कुल अभाव है। कार्य के दायित्व की भावना स्वेच्छा से या कानून के जरिये जब तक सरकारी तंत्र में नहीं आयेगी। तब तक देश के सरकारी कार्यालयों में फाइलों का अंबार लगा रहेगा। दरअसल यह स्थिति मात्र सरकारी कार्यालयों में ही अधिक खतरनाक है। निजी कार्यालयों में इस प्रकार की समस्या नहीं है। क्योंकि वहां पर कार्य की जवाबदेही अति आवश्यक है। पिछले दिनों लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण के धन्यवाद प्रस्ताव के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी इस ओर चिंता जाहिर की और ब्यूरोक्रेसी को अकांउटेबल बनाने के लिये बहुत जोर दिया। पिछले दिनों विभिन्न मंत्रालय के डिप्टी सेक्रेटरी व अण्डर सेके्रटरी स्तर के 122 अधिकारियों की जिनकी परर्फोमंेस ठीक नहीं थी उनके खिलाफ कार्यवाही करने के भी आदेश दिये।


आज देश में केन्द्र सरकार के विभिन्न कार्यालयों में लगभग 33 लाख कर्मचारी कार्यरत हैं। 2016-2017 में सरकार 183935 करोड़ रूपया इनके वेतन का बोझ सहन करेगी। जबकि गत वर्ष में यह 118248 करोड़ रूपया थी। सर्वे व सूत्र बताते हैं कि तनख्वाह में लगभग 70 हजार करोड़ रूपये का इजाफा होने के बाद भी कार्यक्षमता में कोई तेजी नहीं आयी । 7वें वित्त आयोग की रिपोर्ट में जो कर्मचारियों के भत्तों में जो वृöि की गयी उसके अनुसार लगभग 90 हजार करोड़ तनख्वाह और लगभग इतने भत्ते की सिफारिश की गयी है। यानी जितने को घोड़ा है, वह उतने की ही घास खा रहा है। भत्तों में बढ़ोतरी का मूल उद्देश्य कर्मचारियों की कार्यक्षमता को बढ़ाना होता है जो कि नहीं बढ़ पा रही है। दो छुट्टियों के बाद अधिकारियों को ज्यादो चुस्ती फुर्ती से कार्यों का निपटारा करना चाहिये अपितु होता ऐसा है कि जवाबदेही के अभाव उसको तीन दिन का कर दिया जाता है। कमोवेश राज्यों की स्थिति और खराब है। देश के विभिन्न राज्यों में लगभग साढ़े तीन करोड़ कर्मचारी व अधिकारी काम करते हैं और वह भी इस प्रकार की छुट्टियों के आनंद के अलावा कार्यों के निस्पादन पर कम ध्यान देते हैं। हर विभाग द्वारा कर्मचारियों के अभाव का रोना एक आम बात हो गयी है। दरअसल तो अभाव कर्मचारियों का नहीं बल्कि अभाव जवाबदेही का है। अवकाश यदि कर्मचारी की कार्यक्षमता को बढ़ा रहा है। कार्य करने के उत्साह को बढ़ा रहा है तो अवकाश जरूरी है और यदि कार्य को निपटाने में वही अवकाश रूकावट बन रहा है तो उन पर गंभीरता से लगाम लगानी होगी। मात्र वोट बैंक को लुभाने व जातीय समीकरण बिठाने के लिये जिससे सिर्फ राजनीतिक लाभ मिले। इस प्रकार के अवकाशों पर तुरंत लगाम लगानी होगी अन्यथा इस प्रकार लम्बे-लम्बे अवकाश आना और इनके जाल में कार्यों में विलम्ब होने से देश के विकासरथ में गति नहीं आयेगी।

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