कुछ दिन से पूरे छब्त् में प्रदूषण महामारी की तरह से फैला हुआ है। दरअसल तो भारत विश्व में शायद पहला देश होगा जहाँ बीमारियाँ प्रदूषण महामारियों आदि का समय निश्चित है। इन महीनों में डेंगू फैलना है, इन महीनों में वायरल फैलना है, इन महीनों में प्रदूषण का स्तर बहुत बढ़ जाता है आदि-आदि। ऐसा नहीं है कि सरकारें इन पर नियंत्रण पाने के लिए बजट नहीं बनाती हैं, सरकारों के बजट का एक बहुत बड़ा हिस्सा इन सभी से निपटने के लिए होता है, किन्तु वो मात्र कागजों पर ही होता है या भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाता है। अभी अगस्त और सितंबर के महीने में यह प्रदूषण बिल्कुल सामान्य स्थिति में था। छब्त् का ।फप् स्मअमस 150ध्160 के आसपास था। उस समय वो सभी कार्य हो रहे थे जिन पर आज से ळत्।च् 4 के नाम पर प्रतिबंध लगा रहे हैं। समझ नहीं आता कि सरकारों में बैठे हुए लोग किस मानसिकता से ग्रस्त हैं कि उनको इतनी सी बात नहीं समझ आ रही कि इस प्रदूषण के पीछे न तो डीजल की गाड़ियों का हाथ है न डीजल के जनरेटरों का हाथ है, और न ही भवन निर्माण का हाथ है।हां अगर हम भवन निर्माण की बात करें तो उसमें इस बात का ध्यान रखना हमें अति आवश्यक है कि धूल के कण बाहर न फैलें। अतः निर्माण स्थल पर नियमित रूप से पानी का छिड़काव अति आवश्यक है।
तो नवम्बर के महीने में ऐसा एकदम क्या हो जाता है। हर साल सारा सरकारी तंत्र प्रदूषण का गाना शुरू कर देता है। हवा की जाँच कराने पर पता चलता है। जिससे सिर्फ धूल कण की मात्रा बहुत ज्यादा बढ़ जाती है।जो घूल कण एक महीने पहले बारिशों के कारण नीचे जमे हुए थे। सड़को के किनारे धूल का जमावड़ा न हो। गाड़ी के टायरों में लगकर वह धूल वातावरण में न फैले, सुबह सफाई कर्मचारियों द्वारा सफाई करते वक्त वातावरण में न फैले, बल्कि सफाई करते समय उस पर थोड़ा हल्का छिड़काव कर दिया जाए। सार्वजनिक स्थानों व सड़कों के दोनों तरफ जो धूल है उसको झाड़ू की बजाय सुपर सक्शन मशीन द्वारा उठाया जाए। इन मशीनों की चर्चा पिछले 20 साल से छब्त् में चल रही है, किन्तु उसका इस्तमाल सिर्फ इक्का दुक्का सड़कों पर रस्म अदायगी मात्र के लिए किया जाता है।
सरकारें अपने कार्य क्षेत्र में आने वाले किसी भी कार्य को नहीं करती।यदि सरकारों को क्या आता है तो प्रतिबंध लगाना, उसका पालन न करने वालों का चालान करना। क्योंकि चालान करने से सरकारों की कमाई होती है और चालान न करने में चालान करने वाले अधिकारियों की जेब में पैसे जाते हैं। लेकिन प्रदूषण के हालात जस के तस रहते हैं। पर्यावरण व ग्रीन टैक्स के नाम पर वसूला गया सारा पैसा सुप्रीम कोर्ट की कमेटी की निगरानी में पर्यावरण के सुधार में ही खर्च होना चाहिये और सरकार पब्लिक डोमेन में आम जनता को यह बात समय समय पर सूचित करती रहे कि इस मद में वसूला गया पैसा हमने सिर्फ और सिर्फ पर्यावरण को सुधारने में ही खर्च किया है। तब जाके चालान काटने का औचित्य समझ में आएगा अन्यथा न तो चालान काटने से पर्यावरण प्रदूषण ठीक नहीं होगा। हाँ चालान काटने वालों की जेबें जस्ट भरती रहेंगी।
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