नौ निहालों की आत्महत्या” व्यवस्था के माथे पर कलंक
- शरद गोयल
- Jun 21, 2023
- 6 min read
हाल ही में एक खबर आई कि देश में कम्पीटीशन एग्जाम की तैयारी करवाने वाला हब राजस्थान के कोटा शहर में सन 2023 में अब तक 20 बच्चों ने जोकि यूपीएससी, इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट की तैयारी कर रहे थे, उन्होंने निराश होकर आत्महत्या कर ली। दरअसल सुंदर भविष्य की कामना और महानगरों की चकाचौंग ना पाने की हताशा और अच्छी जीवन शैली व्यतीत करने का सामाजिक दबाव यह कुछ ऐसे कारण है जो इन होनहार बच्चों को अपनी जीवन लीला समाप्त करने के लिए प्रेरित करता है। दरअसल भारत के बारे में यह एक सत्य है कि भारत एक दुनिया का ऐसा देश है जिसकी यूथ जनसंख्या विश्व में सबसे ज्यादा है। हालांकि अब तो ऐसा माना जा रहा है कि भारत की जनसंख्या ही विश्व की सबसे ज्यादा जनसंख्या और इस नाते भी सबसे ज्यादा युवा जनसंख्या भारत की ही है। एक तरफ जहां पर यह आंकड़ा वरदान है वहीं पर यह अभिशाप भी है क्योंकि आज का युवा अपने भविष्य को लेकर जितना तनाव में हैं उतना शायद यह पहले कभी नहीं था। क्योंकि उसकी इच्छाएं बढ़ गई हैं। युवाओं का एक बहुत बड़ा वर्ग नौकरी की तलाश में भटकता रहता है। नौकरी ना मिलने से हताश होकर आत्महत्या करता है। उल्लेखनीय यह भी है कि आंकड़े बताते हैं महिलाओं की इस उम्र में आत्महत्या करने की संख्या पुरुषों की अपेक्षा काफी कम है। जहाँ 56.51% पुरुष है वहीँ 43.49% महिलाएं है। जिन मुख्य कारणों से आजकल युवा आत्महत्या की ओर अग्रसर हो रहा है उनमें सर्वप्रथम किसी करियर एग्जाम में फेल होना है। उसके बाद अन्य श्रेणी में बीमारी और घरेलू कारण होते हैं। अगर गृह मंत्रालय की साइट “एनसीआरबी” की बात करें तो आंकड़े बहुत चौकाने वाले हैं। 2021 के आंकड़े बताते हैं कि आत्महत्या करने वाले कुल 10700 बच्चों में से 864 बच्चों ने भिन्न-भिन्न परीक्षाओं में फेल होने के कारण आत्महत्या की। वही एक और आकड़ा सामने आता है कि 2021 में बारहवी कक्षा के 13000 बच्चों ने आत्महत्या की है और आई आई टी के तीन बच्चें और एन आई टी के तीन बच्चों ने भी आत्महत्या की है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि बहुत सी आत्महत्याएं इस प्रकार की होती हैं जिनको पुलिस एक्सीडेंट करार कर देती है। आखिर क्या वजह है और कौन दोषी है इन हत्याओं का। अगर एक सिरे से सोचा जाए तो हमारी संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था और सामाजिक दबाव एक दूसरे को देखकर आपस में प्रतिस्पर्धा की भावना और 18 से 30 साल के बच्चों को उनसे अभिभावकों का ठीक से संवाद ना होना है।
उल्लेखनीय है कि यहां पर सभी 864 बच्चे 18 साल से कम है। दरअसल यह प्रतिस्पर्धा बच्चों में स्कूल टाइम से हो जाती है। पिछले लगभग दो दशकों में निजी स्कूलों का जो जाल फैला और सरकारी स्कूलों का स्तर गिरा वहीं से बच्चों में प्रतिस्पर्धा की भावना शुरू हो जाती है और रातों-रात तरक्की करने के लिए बच्चे कुछ भी करने के लिए तैयार हो जाते हैं। चाहे यह नैतिक हो या अनैतिक। ऐसा नहीं कि आत्महत्या की यह भावना भारतीय बच्चों में ही होती है। कमोपेश हर देश में बच्चों में यह भावना पाई जाती है। लेकिन भारत में इसकी परसेंटेज अधिक है। कहने को सरकार ने इसके लिए बहुत से विभाग बनाए हुए हैं व बहुत सी एनजीओ इस क्षेत्र में बनाई हुई है। परंतु परिणाम कोई सकारात्मक नहीं आ रहे हैं। आज का युवा जितना दिशाहीन है, शायद उतना कभी भी नहीं हुआ। इसी कारण से जो निराशा पैदा हो रही है वो इसका मुख्य कारण है। सरकार, एनजीओ, अभिभावक सबका ये प्रयास होना चाहिए कि बच्चे को तनाव मुक्त करने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की काउंसलिंग व निगरानी करें।
शिक्षा का अर्थ हमें यह नहीं मानना चाहिए कि किसी व्यक्ति के पास कितनी उपाधियाँ है। शिक्षा का वास्तविक अर्थ है-समालोचनात्मक, विचार शक्ति, वैज्ञानिक दृष्टिकोण (अर्थात कारण और परिणाम के बीच संबंध स्थापित करना) और तथ्यों के आधार पर तार्किक विश्लेषण का विकास करना। यह कोई आवश्यक नहीं कि सब कुछ उपाधियों के आधार पर ही विकसित हो। हमारे देश में काफी समय से एक ही सोच चल रही है कि आई.आई.टी, आई.आई.एम और अखिल भारतीय चिकित्सा विज्ञान जैसे संस्थानों से ही इंजीनियरिंग, प्रौद्योगिकी प्रबंध, चिकित्सा आदि से अध्ययन किया जाए और यदि इनमें प्रवेश नहीं हुआ, तब जीवन निरर्थक है। इसके अतिरिक्त वित्तीय और लेखांकन में कुछ प्रसिद्ध व्यवसाय हैं, उनमें प्रवेश मिल जाए तब भी ठीक है। हमारे माता-पिता को भी प्रदर्शन प्रभाव के कारण ये नाम कंठस्थ हो गए हैं और उन्होंने अपने बच्चों की सभी भावी योजनाएं भी इन्हीं मान्यताओं के आधार पर निर्मित कर रखी होती है। इसी कारण अच्छे बच्चों के मन में असफलता का भय रहता है। यदि ऐसा ना हुआ तब क्या होगा? ऐसी स्थिति में सभी स्वप्न जो सभी परिजनों ने संजोकर रखे थे वे टूट जाते हैं। अपेक्षाओं के आधार पर कई मंजिला इमारतें बना लेते हैं और वे सभी ताश के पत्तों की तरह बिखर जाती है।
हमने इन्हीं सेवाओं को अपना प्रारंभ और अंत मान लिया है। अन्य विकल्पों की ओर ना हम ध्यान देते हैं और ना ही यह सोचते हैं कि हमारा बच्चा इन विषयों के लिए बना ही नहीं है। सब कुछ इसलिए करना होता है कि हमारी समाज में प्रतिष्ठा हो जाए, हमारी नाक ऊंची हो जाए। जीवन में बहुत से विकल्प हैं- ईश्वर ने किसी को पैदा किया है साहित्यकार बनने के लिए, ललित कलाओं के लिए, गीतकार बनने के लिए, लेखक बनने के लिए, एक अच्छा अध्यापक बनने के लिए, एक अर्थशास्त्री बनने के लिए, एक कुशल प्रशासक बनने के लिए, राजनेता बनने के लिए, नीति निर्धारक बनने के लिए, अच्छी व्यूह रचना बनाने के लिए, अच्छा योद्धा बनने के लिए, अच्छा गीतकार बनने के लिए, अच्छा कलाकार बनने के लिए जो मंच पर सशक्त अभिनय के द्वारा उस पात्र को जीवंत बना दें, डिजाइनर बनने के लिए, छायाकार बनने के लिए…… अनेक विकल्प है। परंतु हमको लगने लगा है कि यह नहीं तो कुछ नहीं। विभिन्न खेल-कूद प्रतियोगिताओं में सिद्ध हस्त बनकर हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी कीर्ति स्थापित कर सकते हैं। हम उद्योगपति, व्यापारी आदि बनकर लोगों को रोजगार दे सकते हैं। हम कृषि वैज्ञानिक बनकर अन्नदाता बन सकते हैं, हम योगाचार्य बन सकते हैं, हम शिल्पकार बन सकते हैं, हम अच्छे पेंटर बन सकते हैं, हम बहुत अच्छे भवन निर्माता बन सकते हैं।
अनंत विकल्पों के साथ हमने मात्र दो को ही क्यों चुना है। हम संस्कारों की घुट्टी ऐसी पी लेते हैं कि हमारा दृष्टिकोण बहुत सीमित हो जाता है। बहुत शिक्षित व्यक्ति भी इसका शिकार हो चुका है। मैं विज्ञान के विषयों के लिए बना ही नहीं हूँ, मुझे क्यों डार्क-रूम में धकेला जा रहा है। मेरी रुचि है लेखन में, साहित्य के अध्ययन में, इसी कारण विचारों का सैलाब आता है जिसे शब्दों में पिरो देता हूँ और इस माला को कविता कहते हैं।
उदाहरण केवल मात्र कोटा शहर से लेना उपयुक्त होगा क्योंकि यह न्यादर्श हमारी समग्र स्थिति के लिए पर्याप्त होगा। प्रत्येक वर्ष पूरे देश से तथाकथित प्रतिष्ठित प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए कोटा के विभिन्न कोचिंग केंद्रों में 2,25,000 विद्यार्थी प्रवेश लेते हैं और सबके माता-पिता यह मानकर कि उनका बच्चा सफलता अवश्य प्राप्त करेगा, इसी अपेक्षा के साथ अपने से दूर कर देते हैं। जबकि संभवत: उनका बच्चा इस वियोग को सहन करने के लिए समर्थ ही ना हो। कोटा की अर्थव्यवस्था के लिए यह व्यवसाय आकर्षण का केंद्र है क्योंकि इस व्यवसाय का कुल आगम 5000 करोड़ रुपए प्रति वर्ष का है। यहां की स्थिति यह है कि इसी वर्ष 20 युवकों ने यहाँ आत्महत्या की है और पिछले वर्ष भी आत्महत्या करने वाले युवकों की संख्या 16 थी। 2011 से अब तक इसी स्थान पर 121 बच्चे आत्महत्या कर चुके हैं। 2019-2022 तक 59 बच्चों ने आत्महत्या की। यह देश की युवा शक्ति है, हम सब कब तक मौन रहेंगे। आयें, सोचे और चिंतन करें। टाटा सामाजिक विज्ञान शोध संस्थान ने एक अध्ययन में 2018 में यह पाया कि अधिकांश बच्चों से जिस गति से अध्ययन कराया जाता है, उसके साथ उनका सीखना पीछे रह जाता है। इनमें से प्रत्येक बच्चा किसी ना किसी क्षेम में देश के लिए गौरव बनता, परंतु हमने उसे आत्महत्या करने के लिए विवश कर दिया। क्योंकि हमारी सोच बौनी हैं और हम देश को विश्व का ज्ञान गौरव बनाने की दिशा में प्रयत्नशील है।
सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 को तैयार करते समय विविधता, समानता, समावेशिता और लोक कल्याण की अवधारणाओं पर बल दिया है, इसी कारण शिक्षा को लोचशील एवं समग्र बनाने की दिशा में हमारा सतत प्रयास होगा। शिक्षा में ज्ञान-वर्धन के साथ-साथ कौशल विकास पर प्रमुख बल दिया जाना है। हर बच्चे में कुछ ना कुछ है जो देश को बहुमुखी विकास की ओर ले जाएगा। हम अपने पूर्व-धारणाओं और मान्यताओं को छोड़ें। हर एक व्यक्ति की कमीज कभी भी एक जैसी सफेद नहीं हो सकती चाहे वह कोई भी वॉशिंग पाउडर का प्रयोग कर ले। युवा शक्ति देश की बहुत बड़ी धरोहर है, इसे ऐसे ही व्यर्थ ना होने दें। अन्यथा हमारी सम्पूर्ण व्यवस्था पर, समाज पर और सरकारों पर इन नौ निहालों के कातिल होने का कलंक लगा रहेगा।
शरद गोयल
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