पिछले एक हफ्ते में छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले और कांकेर जिले में दो अलग-अलग घटनाओं में सेना के 15 जवान शहीद हो गये और लगभग 2 दर्जन से ज्यादा गंम्भीर रूप से घायल हो गये लेकिन यह कोई पहली घटना नहीं है जब हमारे जवानों ने नक्सली हमलों में जान गंवायी हो अब तक का कुल आंकड़ा लंें तो यह चैंका देने वाली संख्या होगी और सरकारों के एक नेता या गृहमंत्री का बयान भर व राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री के शोक संदेश आने के सिवाय दरअसल देश वासियों को भी अब इन सब चीजों की आदत सी हो गयी है और इस समस्या के निवारण के क्षेत्र में कोई नयी खबर या सरकार द्वारा गंभीर प्रयासों की खबर कब सुनने को मिलेंगी इसकी संभावना कम लगती है। केन्द्र में सत्ता परिवर्तन के बाद ऐसा लगने लगा था कि नक्सलवाद, माववाद की समस्या के प्रति सरकार बहुत गंभीरता से कदम उठायेगी लेकिन अभी इस ओर कोई पहल नहीं की गयी है। यहां तक कि नकसली प्रभावी क्षेत्रों को देश की मुख्यधारा से जोड़ने के लिये कोई विशेष पैकेज केन्द्र या आम बजट में भी नहीं रखा गया। 11 जून 2013 को छत्तीसगढ़ में ही नक्सली हमले में कांग्रेस ने अपने एक वरिष्ठतम नेता बी.सी.शुक्ला को गंवा दिया तब शायद ऐसा लगा था कि सरकार अब इस समस्या का समाधान निकालने की ओर कोई गंभीर प्रयास करेगी लेकिन न तो उस समय व उसके बाद केन्द्र में दूसरी सरकारों ने कोई ठोस कदम उठाये हैं और आज स्थिति यह है कि देश के दस राज्यों में 90 से अधिक जिलों में नक्सलवाद के आतंक का साया फैलता जा रहा है। सरकार की गिनी हुई योजनाओं में इनको देश की मुख्यधारा में कैसे लाया जायेगा यह नहीं दर्शाया जा रहा है।
सरकार नक्सलवादियों को आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताती है। नक्सलियों ने भी अपने तौर तरीके में बदलाव नहीं किये तो वह दिन दूर नहीं हैं जब जनता भी इस सरकारी राय से इत्तफाक रखने लगेगी। वैसे भी नागरिक समाज मत नक्सलवादियों के प्रति जो सहानुभूति का भाव पहले दिखता था वह धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। कुछेक मानवाधिकार कार्यकत्र्ता, बुद्धिजीवी, लेखक और पत्रकार जो नक्सलवादियों के प्रति उदारता का भाव रखते रहे हैं, नक्सलविरोधी आॅपरेशन के इस दौर में उन्हें निशाना नहीं बनाया जाना चाहिये। क्योंकि वे कालांतर में सरकार और नक्सलवादियों के बीच बातचीत के सेतु का काम कर सकते हैंै।
नक्सलवादियों से तमाम असहमति रखते हुए भी यह कहना जरूरी है कि उनसे निपटने का वह तरीका मुफीद नहीं होगा जो आतंकवादियों और दूसरे तरह के संगठित अपराधों से निपटने के लिये आजमाया जाता है। वे भटके हुये भले ही हों लेकिन वे इस धरती के बेटे हैं। साथ ही उन्हें इस बात का श्रेय जाता ही है कि उन्होंने विकास के इस उत्तर आधुनिक दौर में आदिवासियों और गरीब-गरबों के पिछड़ेपन को मुद्दा बनाने में अहम योगदान दिया है।
दरअसल नक्सलवाद समस्या वहां कि गरीबी व पिछड़ेपन से जुड़ी हुयी है। नक्सलवादी एक व्यवस्था से लड़ रहे हैं न कि देश से उस क्षेत्र की आर्थिक स्थिति इतनी दयनीय है कि उनको सामान्य नागरिक बनकर रहना व नक्सली बनने में दूसरी पसंद ज्यादा अच्छी लगती है। एक तरफ देश का इतना बड़ा भाग इस गंभीर समस्या से जूझ रहा है और दूसरी ओर पूर्वोत्तर का सारा क्षेत्र भी अपने असतित्त्व की लड़ाई लड़ रहा है। ऐसे में जबकि पड़ोसी देश चीन भारत में किसी भी प्रकार से अपनी घुसपैठ या असंतोष फैलाने को तिलमिला रहा है, उस समय सरकार को किसी बहुत बड़ी दुर्घटना का इंतजार न करते हुये एक सार्थक पहल समयबद्ध कार्यक्रम के अनुसार करनी चाहिये उसके लिये चाहे सरकार पर आर्थिक बोझ पड़ता हो तो भी उसके वहन के बारे में सरकार को नहीं सोचना चाहिये क्योंकि अगर इस क्षेत्र का विकास होता है और शान्ति होती है तो सुरक्षा के नाम पर सरकार जो खर्चा अभी भी वहन कर रही है, वह कोई कम नहीं है। 2001 और 2013 तक के आंकड़े बताते हैं कि नक्सल प्रभावी क्षेत्रों में लगभग 13 हजार व्यक्ति मारे गये। औसतन 3 व्यक्ति रोज इस व्यवस्था के अंदर अपनी जान गंवा रहे हैं। जैसे कोई बड़ी दुर्घटना होती है, वह पहले दिन अखबार व टेलीविजन की सुर्खी बनती है और दूसरे दिन अखबार के तीसरे पन्ने पर वह खबर होती है और टेलीविजन पर तो पांच मिन्ट बाद ही वह खबर पुरानी हो जाती है लेकिन जो हजारों सैनिक अपने ही देशवासियों द्वारा मारे गये क्या उनके परिवार वाले इस दुर्घटना को कभी भूल पायेंगे ?
नक्सलवाद का पेचीदा मुद्दा है। एक तरफ जहां नक्सलवादी इस देश की सेना और पुलिस से पार नहीं पा सकते, वहीं सरकार भी सिर्फ हथियारों के दम पर नक्सलियों को नहीं मिटा सकती। इन दोनों पक्षों को यह सच्चाई स्वीकार कर लेनी चाहिये कि मौजूदा दौर में इस समस्या का समाधान बातचीत से ही संभव है। लेकिन इसकी पहल कौन करेगा बीच में ऐसी परिस्थितियां बन रहीं थीं लेकिन दोनों पक्षों के अड़ियल रवैये ने पूरे मामले पर पानी फेर दिया।
अब समय आ गया है कि सरकार को नक्सलवादियों की सभी समस्याओं को सुनकर उन पर गंभीर विचार करके उनकी समस्याओं का समाधान कर नक्सलवाद को समाप्त करने का प्रयास करना चाहिये। अब तो छत्तीसगढ़ व केन्द्र में एक ही पार्टी की सरकार है जिसके कारण कोई राजनैतिक तालमेल न होने का बहाना भी नहीं दिया जा सकता। मुझे हमेशा से उम्मीद रही है कि नक्सलवाद की समस्या सरकार के गंभीर प्रयासों से इस देश से हमेशा के लिये समाप्त हो सकती है। पूर्वोत्तर राज्य के राज्यमंत्रियों की तर्ज पर गृहमंत्रालय में एक राज्यमंत्री नक्सलप्रभावी राज्यों से केन्द्र सरकार के समन्वय के लिये बनाये जायें और केन्द्र प्रभावी कदम उठायें।
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