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परमाणु ऊर्जा डील 

  • Writer: शरद गोयल
    शरद गोयल
  • Oct 4, 2024
  • 1 min read

 


आखिर एक दशक से अमेरिका द्वारा शुरू किये गये प्रयास और राष्ट्रपति ओबामा के भारत दौरे के समय सफल हो गये। 18 जुलाई 2005 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और अमेरिकन राष्ट्रपति बुश के बीच न्यूक्लीअर डील पर चर्चा प्रारंभ हुई। 3 अगस्त 2007 में इस सौदे से संबंधित एक दस्तावेज 123 एग्रीमेन्ट फोर कोरपोरेशन बनाया गया। अक्टूबर 2008 में यह 123 समझौता दस्तावेज लागू हुआ। 

विश्व में न्यूक्लीअर पावर प्रोजेक्टों में हुई दुर्घटनाओं ने व देश में भोपाल गैस काण्ड ने एवं दिल्ली की मायापुरी में रेडियेशन के फैलाव से मानव जीवन की क्षति ने, देश को न्यूक्लीअर पावर प्रोजेक्टों के प्रति सजग कर दिया। जापान में फुकुशिमा के न्यूक्लीअर पावर प्रोजेक्ट की दुर्घटना में 1,60,000 लोगों के रेडियेशन से प्रभावित होने तथा परियोजना के आस-पास की भूमि के दशकों तक रहने के अयोग्य हो जाने के समाचार के बाद भारत के नये और पुराने आणविक ऊर्जा परियोजनाओं की सुरक्षा पर प्रश्न चिन्ह लगने लगे। अतः संसद में 2010 में एक नया बिल न्यूक्लीअर लाइबिलटी बिल नाम से पारित किया गया जिसके तहत दुर्घटना होने पर परियोजना के लिये संयंत्र (मशीनरी) और सामग्री आपूर्ति करने वाले पर क्षति पूर्ति को दायित्व डाला गया। जब देश में हजारों लोग प्रति वर्ष सड़कों के निर्माण में खामियों के कारण मौत के मुंह में जा सकते हैं, हजारों मौतें रेलवे के कुप्रबंध के कारण होती हैं तो इन न्यूक्लीअर पावर प्रोजेक्टों में सुरक्षा की गारंटी कैसे विश्वसनीय मानी जा सकती हैं। अतः उपरोक्त विधेयक देश की आवश्यकता है।

 

                              किन्तु उपरोक्त विधेयक ने विश्व के देशों के विशेषकर अमेरिका के कान खड़े कर दिये। सूत्रों का कहना है कि अमेरिका में 104 रिएक्टर         लगभग 20-30 वर्ष पुराने पड़े हैं, भारत में उन को बेचकर वह पूंजी एकत्रित करना चाहता है। परंतु उपरोक्त विधेयक अमेरिका की मंशा पर पानी फेरता दिखता है। 2009 से अभी तक भारत की फ्रांस, रुस, आस्ट्रेलिया, जापान आदि देशों से इस संदर्भ में सकरात्मक वार्ता प्रारंभ हुई परंतु अमेरिका इस रास्ते पर अभी तक नहीं आया। अमेरिका को सबसे बड़ी बाधा न्यूक्लीअर लाइबिलटी एक्ट भारत में दिखता है परंतु अब राष्ट्रपति ओबामा के भारत दौरे के दौरान प्रधानमंत्री मोदी की तथा कथित दरियादिली ने अमेरिका का रास्ता साफ कर दिया। अमेरिका जो चाहता था उसे मिल गया। 

 

                              वर्तमान में नयी बनायी गयी व्यवस्था के तहत भारत में न्यूक्लीअर पावर प्रोजेक्ट में दुर्घटना होने पर क्षति पूर्ति हेतु एक कोेष 1,500 करोड़ रूपये का गठित किया जायेगा, जिसमें 750 करोड़ रूपये सरकार द्वारा पोषित बीमा कम्पनियां जमा करेंगी। शेष भारत सरकार अपने कोष से जमा करेगी। बीमा कम्पनियों को बीमा के लिये प्रीमियम की किस्त परमाणु ऊर्जा उत्पादक परियोजना से बिजली विक्रय मूल्य में से दिया करेगी। अर्थात् देश के उपभोक्ताओं को ही बिजली का अधिक मूल्य देकर प्रीमियम की राशि चुकानी होगी। संक्षेप में कहा जाये तो देहाती कहावत यर्थात् होती हैं कि अपनी जूती और अपना ही सिर। समस्या के समाधान के लिये उपरोक्त व्यवस्था करने वाले यदि अपने आप को देश भक्त कहें, भारतीयों के हमदर्द कहें, चालाक कूटनीतिज्ञ और चतुर हितरक्षक मानें तो भले ही मानें परंतु समाज का प्रबुद्ध वर्ग सहमति व्यक्त नहीं कर सकेगा। 

 

               वर्तमान में देश कोे बिजली की आवश्यकता से कोई इंकार नहीं कर सकता है परंतु देखना होगा कि समस्या का समाधान इस हालत में हो कि बिजली बिना आशंकाओं के सहज उपलब्ध हो, उसकी कीमत खरीद की पहुंच में हो।      आणविक ऊर्जा विश्व में अपने कारणों से पिछड़ती जा रही है। 1990 में आणविक ऊर्जा क्षेत्र की बिजली का प्रतिशत कुल उत्पादित बिजली में 17 प्रतिशत हुआ करता था जो अभी 11 प्रतिशत रह गया है। स्वयं अमेरिका में आणविक ऊर्जा से उत्पन्न बिजली का प्रतिशत 16 प्रतिशत के लगभग आंका जाता है। परंतु भारत में गुमराह करके आणविक बिजली को स्वच्छ बिजली बता कर इसके उपयोग को अधिकतम बढ़ाने के लिये प्रेरणा दी जाती है। इस आणविक ऊर्जा का उत्पादन मूल्य भी बढ़ गया है। एक अंतर्राष्ट्रीय डील के अनुसार 2006 में जो 23.5 पोण्ड मेगावाट था वह अब 92.5 पोण्ड मेगावाट तक हो चुका है। देश में पहले भी डभोल परियोजना का उदाहरण सामने है।  इस परियोजना को अमेरिकन कम्पनी ने देश में लगाया था, सरकार ने बिजली प्राप्त करने के लालच में आनन फानन में स्वीकृति दे दी किन्तु जब बिजली पैदा होकर उपभोक्ताओं तक पहुंची तो उसका मूल्य  7-7.5 रूपया प्रति यूनिट आया। महंगी बिजली का ग्राहक देश में मिला नहीं, परिणाम यह हुआ कि परियोजना आज भी अधर में लटकी है और देश का 8,500करोड़ रूपया परियोजना में ऋण के रूप में वटे खाते पड़ा है।

 जापान में अपने यहां आणविक ऊर्जा परियोजनाओं को बंद करने का निर्णय लिया जा चुका है। जर्मनी ने भी 2022 तक इन परियोजनाओं को बंद कर देना है। इंग्लैंड आगामी 20 वर्षों में एक परियोजना बनाने का निर्णय ले रहा है जहां दुनिया इस क्षेत्र से दूर जा रही है, वहीं भारत इसे आतुरता से अपनाना चाहता है आखिर क्यों ?

 

अंत में विचार करना आवश्यक है कि जब विश्व धीरे -धीरे इस बिजली क्षेत्र के प्रति उदासीन होता जा रहा है तब भारत में यह उत्सुकता क्यों ? और यदि किन्हीं कारणों से भारत में यह आवश्यक भी है तो भारत अपने संसाधनों का उपयोग कर अपनी आवश्यकता पूरी कर सकता है। 

 

13 अगस्त 2014 को भारतीय संसद की लोकसभा में प्र0 संख्या 5048 का उŸार देते हुए सरकार ने कहा है कि देश में 11.93 मिलि. टन मोनाजाइट पाया जाता है और इस मोनाजाइट खनिज में 9 प्रतिशत से 10 प्रतिशत तक थोरियम पाया जाता है। इस प्रकार देश में 1.07 मिलि. टन थोरियम है तथा इस थोरियम का उपयोग 1,55,500 मेगावाट बिजली पैदा करने में हो सकता है। आगे इसी प्रश्न के उŸार में बतलाया जाता है कि इंदरा गांधी परमाणु अनुसंधान केन्द्र कलपाक्कम (तमिलनायडू) में एक 30किलोवाट बिजली उत्पादन क्षमता वाले एक अनुसंधान रिएक्टर कामिनी जो 233 यूरेनियम को इंधन के रूप में काम में लाकर उत्पादन हो रहा है एवं यह 233 यूरेनियम थोरियम के किरणों से उत्पादित हैं। तथा यह परियोजना विश्व में मात्र भारत में ही चल रही हैं। इसके अतिरिक्त 17 दिसम्बर 2014 को लोक सभा में प्रश्न संख्या 4138 के उŸार में सरकार का कहना है कि देश में पहले प्रचुर मात्रा में यूरेनियम का उपयोग कर उत्पादन क्षमता पैदा कर लेने के बाद, भारतीय नाभिकीय विद्युत कार्यक्रम के तीसरे चरण के एक भाग में ही थोरियम का उपयोग करने की योजना है।

सामान्य समझ के बाहर है कि क्यों भारत में स्वसंसाधनों का विकास रोक कर विदेशों पर निर्भरता पैदा की जाती है, निश्चित पर्दे की बात है। देश को समझाया जा सकता है कि पर्दे में रहने दो। परंतु यह पर्दा स्थायी नहीं होता, पर्दा तो हटना ही है, देश देवों की भूमि है, तपस्वी और साधकों की जन्म स्थली है, यहां पर्दे का नहीं पारदर्शिता का ही महŸव है। पर्दा तो हटेगा, फटेगा पर कब यह तो भविष्य ही निर्णय करेगा।  

 

                             

 

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