प्रकृति से छेड़छाड़ का परिणाम
- शरद गोयल
- Aug 3, 2024
- 3 min read
हाल ही में उŸाराखण्ड मंे आये बारिश के तूफान ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि प्रकृति अपने आप से ज्यादा छेड़छाड़ बर्दाश्त नहीं कर सकती, प्रकृति ने एक बार फिर यह सीधे शब्दों में यह कह दिया है, कि मरे धैर्य का ज्यादा इम्तहान मुझसे बर्दाश्त नहीं होगा, सच में तो गत दो दशकों में मानव ने प्रकृति के साथ जो छेड़छाड़ शुरू की है वह सीधे -2 मानव के कार्य में रूकावट डालने वाली बात है, उसमें चाहे कितनी निर्माण के लिये बांधों का निर्माण हो या पहाड़ी क्षेत्र का व्यवसायीकरण हो, दरअसल धार्मिक स्थानों के व्यवसायीकरण को जिस तरह पिछले दो दशकों में बढ़ावा मिला है, उसको हम विकास से नहीं जोड सकते है, खास तौर से यदि हम उŸाराखण्ड के क्षेत्र को देखें तो एक बात साफ हो जाती है कि टिहरी डेम से लेकर अन्य छोटे बड़े हाईड्रो प्रोजेक्ट के नाम पर जिस तरह से इस पूरे क्षेत्र से छेड़खानी की गई है मै तो कहूॅगा कि इस पूरे क्षेत्र. के असतित्व को मिटाने का प्रसास किया जा रहा है। नतीजन पर्यावरण का असंतुलित होना इसका सबसे बड़ा नतीजा है, हाल की विनाशलीला ने जिस तरह से पर्यावरण को हानि पहुंचाई है, वह कोई अचरज की बात नहीं है।
धार्मिक स्थानों पर यात्रियों का बढ़ना एक स्वभाविक सा सहकार्य है, आवश्यकता श्रद्धालुाओं को रोकने की नहीं या श्रद्धा आस्था को कम करने की नहीं आवश्यकता है सरकारों के संवेदनशील होने की, आखिर कितना नुकसान करके, कितने लोगों की जान गंवाकर हमारी सरकारें सचेत होगी, और इस तरह के प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिये सचेत और सजग रहेगी यह देखने वाली बात है, जब प्रशासन को इस बात की जानकारी है कि इतनी भारी तादात मंे यात्री हर साल यहां पहंुचते है तो, क्यों नहीं वहां पर लोगों की सुरक्षा और रक्षा के लिये कार्य किये गये , कम्युनिकेशन का न होना आज के युग मंे एक मजाकिया बात लगती है, आपदा प्रबंधन विभाग, संचार विभाग पुलिस और पैरा मिलट्री फोर्सेस का एक स्थायी कैम्प क्यो नहीं वहां पर बनाया गया, क्या यह जरूरी है कि आपदा प्रबंधन विभाग आपदा आने के बाद ही कार्य करे उससे पहले नहीं? आज के युग में संचार के माध्यम सेटेलाईट टेलीफोन तक पहंुच गये है क्यो नहीं इन जगहों पर इस तरह के टेलीफोनों का स्टेशन बनाया गया, और बहुत से कार्य जो आपदा के बाद किये जाते है वह आपदा आने से पहले किये जाने चाहिये, मुझे बताया गया कि केदारनाथ मंदिर में हादसे से पहले मात्र दो सिपाही दिखाई दिये, सच में तो अब राजनेताओं और आम पब्लिक को यह एक इवेन्ट जैसा लगने लगा है, जो सिर्फ जिन्दा भी माडिया की वजह से है, और की मजबूरी है कि जब तक इससे बड़ी कोई खबर नहीं तब तक इस खबर के माध्यम से लोगों को टी0वी0 के सामने बैठाये रखना, हालाकि इस दौरान भारत द्वारा चैम्पियन ट्राफी जीतने की खबर ने इस खबर को थोड़ा बहुत नजरांे से हटाया तो जरूर है।
सरकारों को संवेदनशीलता व अवसंरचना (विकास के मूल साधन) की कलई तो इस बात से खुल जाती है कि उŸाराचंल की तो बात छोड़ो देश की राजधानी दिल्ली यमुना में बाढ़ के खतरे से हर साल की भांति इस बार भी बिना मानसून की वर्षा के दहल गई आजादी के साठ साल बाद भी देश की राजधानी मेे से निकलने वाली मात्र 21 किमी. लम्बी यमुना नदी का विकास हम इस प्रकार नहीं कर पाये कि वह कितने भी अधिक मात्रा मंे पानी आने से दिल्ली के नागरिकों को बिना कोई नुकसान पहुंचाये निकल जाये, एक ओर यमुना नदी प्रलय का स्वरूप ले लेती है, मूलतः विचार करें तो स्पष्ट बात सामने आ जाती है कि यह प्रकृति से छेड़छाड़ का ही परिणाम है, मानव के भौलिक सुखों को जुटाने के लिये हथिनी कुण्ड व टिहरी डेम जैसी परियोजनाओं का निर्माण किया गया किन्तु मानव के मूल असतित्व के संकट की सुरक्षा की अनदेखी हो गई, वास्तव में आज देश के कर्णधारों को, योजना निर्माताआंें को, विकास की सोत्र पर पुर्नविचार की आवश्यकता है, विकास की योजना का आधार मनुष्य के लिये विकास है न कि विकास के लिए मनुष्य ,
वहराल अव आवश्यकता है इस तरह के हादसे से शी़ख लेने की प्राकृतिक प्रकोपों से अपने को बचा के रखने की, और प्रकृति से कम से कम छेड़खानी करके, पर्यावरण को नुकसान न पहुंचाते हुये विकास कार्य करने कीं।
शरद गोयल
Kommentare