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मिलावट का मर्ज

  • Writer: शरद गोयल
    शरद गोयल
  • Mar 9, 2024
  • 2 min read

Updated: Mar 5

मिटावटी सामान और नकली ब्रांड अब हमारे व्यापार जगत के अनिवार्य हिस्से हैं। हालांकि दुनिया के लगभग सभी देश इसके शिकार हैं लेकिन हमारे देश में यह धंधा कुछ ज्यादा ही परवान चढ़ चुका है। यू ंतो मिलावट को लेकर आमजन भी सतर्क रहने की कोशिश करते हैं लेकिन इससे बच पाना आसान नहीं है। खाद्य पदार्थों में मिलावट का यह आलम है कि जिस चीज में मिलावट की कल्पना भी नहीं की जा सकती, उसमें भी यह धड़ल्ले से हो रहा है। दाल-चावल से लेकर मसाले तो मिलावटी धंधेबाजों के साॅफ्ट टारगेट हैं ही, सब्जियों तक को रंग कर, इंजेक्शन देकर बाजार में भेजा जाता है। इसी क्रम में अब जैव के नाम पर बनावटी उत्पादन बनाने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है और भारत का बाजार जल्दी ही इस तरह के उत्पादों से पटा नजर आएगा।

     आज हर चीज में मिलावट का मुहावरा गलत नहीं है। खाद्य पदार्थों से लेकर पेट्रोलियम उत्पादों में मिलावट अब सामान्य बात है और लोगों को इस तरह के समाचार चैंकाते भी नहीं हैं। लेकिन पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में मिलावटी खून का धंधा करने वालों का एक गिरोह पकड़ा गया तो हैरतअंगेज सूचनाएं उजागर हुई। यह गिरोह जानवरों के खून को आदमी के खून में मिलाकर उसे बेचने का काम करता था। यानी अब बीमार आदमी के शरीर में बाहर से जो खून जा रहा है वह कितना शुद्ध और उपयोगी है, कहना मुश्किल है। अभी तो एक गिरोह पकड़ में आया है आने वाले दिनों में ऐसे अनंत गिरोहों की कारगुजारियां सामने आ सकती हैं। इस परिदृश्य में दूध आदि में मिलावट तो हल्की-फुल्की समस्या लगेगी।

     देश में मिलावट को नियंत्रित करने वाले जो कानून हैं वे कई मामले में भ्रामक हैं। उन पर अमल कैसे किया जाए इसको लेकर संबंधित अधिकारियों में भी भ्रम की स्थिति है। मिलावट से बड़े पैमाने पर जान का खतरा होने के बावजूद यह अभी तक संज्ञेय अपराध नहीं है। पुलिस अभी तक इस मामले में जानकारी मिलने पर भी हस्तक्षेप नहीं कर सकती। मिलावट के संदर्भ में कार्रवाई का अधिकार फूड इंस्पेक्टर को ही है। मिलावटी सामान का सैंपल वही ले सकता है और जांच के लिए भेजने की जिम्मेदारी उसी की है। जांच होने के बाद मिलावट प्रमाणित होने पर मुकदमा भी वही सीधे कोर्ट में दर्ज करेगा। मौके पर पाए जाने वाले आरोपी की गिरफ्तारी भी संभव नहीं है और न ही मिलावटी सामान को जब्त किया जा सकता है। मिलावटी भ्रष्टाचार के इस दौर में ये कानून कितने अपर्याप्त और अप्रासंगिक हैं सहज ही समझा जा सकता है इसके अतिरिक्त कुछ व्यवस्थागत खामियां भी हैं जिनके कारण मिलावटी धंधेबाजों की बन आती है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि हम इन ढीले-ढाले कानूनों से मिलावट के दैत्याकार हो गई प्रवृति को कैसे मात देंगे? मिलावट एक राष्ट्रीय समस्या है और सरकार को इसे इसी रुप में लेना चाहिए। सरकार का दायित्व सिर्फ कानून बनाना ही नहीं, उन पर अमल सुनिश्चित करना भी है। मिलावट रोकने की महती जिम्मेदारी सिर्फ स्वास्थ्य विभाग के भरोसे छोड़ने से यह समस्या हल नहीं होगी। इसमें पुलिस और अन्य प्रशासकीय महकमों को तालमेल के साथ काम करने की जरूरत हैं। उसके बिना मिलावट का खात्मा एक दिवास्वप्न ही रहेगा। यदि सरकार इसके उपाय नहीं करती तो यह माना जाएगा कि सरकार मिलावट से लड़ने के प्रति गंभीर नहीं है। सरकार को तत्काल इसे संज्ञेय अपराध घोषित करना चाहिए और मौका-ए-वारदात पर पकड़े गए व्यक्ति के गिरफ्तारी का प्रावधान शुरू करना चाहिए। सरकार और समाज का कड़ा तेवर ही इस बीमारी को रोक सकता है। यह अच्छी बात है कि मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने भी दूध में मिलावट की एक जनयाचिका में अत्यन्त गम्भीरता और अत्यन्त चिन्ता दिखाई है, माननीय उच्चतम न्यायालय ने केन्द्र सरकार को खाद्य संरक्षण व मानव संरक्षा में संसोधन के लिये कहा है, और साथ ही यह कहा कि मौजूदा कानून का पालन करें, और उसमें संशोधन करों न्यायालय ने उम्मीद जतायी है, कि सरकार इस बारे में ठोस कदम उठायेगी। न्यायमूर्ति, एम.वाई. इकबाल व न्यायमूर्ति शिव कीर्ति सिंह की खण्डपीठ ने दूध में मिलावट से संबंधित इस याचिका पर गंभीरता विचार करते हुये सरकार को आदेश दिया है, कि तुरंत की गयी कार्यवाही से न्यायालय को अवगत कराये।

     दरअसल दूध व किसी भी खाद्य सामग्री में मिलावट का मामला सबसे गंभीर विषय है, और यदि हमारी सरकारें इस ओर भी अपनी संवेदनशीलता नहीं दिखाती हैं या लापरवाही दिखाती हैं तो हमारी आगे आने वाली पीढ़ियों को किन-किन शारीरिक समस्याओं व बीमारियों का सामना करना होगा इसका हम अंदाजा भी नहीं लगा सकते, कभी-कभी ऐसा संदेह होने लगता है कि इस मिलावट को जारी रखने और इसको रोक न पाने में कही दवा माफियों का हाथ तो नहीं है, क्योंकि गत वर्षों में भारत जिस प्रकार बीमारियों का सेन्टर बन गया है, उससे इस शंका को बल मिलता है, सामान्य तौर पर यदि हम पश्चिमी देशों से तुलना करें तो भारत के लोग अधिक शारीरिक मेहनत करते है, व्यायाम करते हैं, और खान-पान की आदतें भी स्वस्थ है, उसके बावजूद भी बीमारियों का जाल जिस प्रकार से आम नागरिकों को चारों ओर से जकड़ रहा है। वह एक विचारनीय विषय है, आज आलम यह बन चुका है कि उच्च रक्तचाप व मधुमेह से शायद ही किसी परिवार में लोग बचे हो, कैंसर के मरीजों की तादात, जुकाम और खांसी के मरीजों की तरह से दिखने लगी है, और फिर शुरु होता है, दवा कम्पनियों का व्यापार, और इस सारे दुष्चक्र में आम नागरिक मारा जा रहा है। वातावरण इतना प्रदूषित हो चुका है कि मिलावटी सामान तो छोड़ो आम आदमी भयवश सब्जी व फल खाने से भी डरता है, सरकारों को यह समझना होगा कि यह परिस्थितियाँ देश को गहरे विनाश की ओर ले जा रही है, और अब जबकि माननीय उच्च न्यायालय ने भी इस विषय को गंभीरता से लिया है तो सरकारों को पहल करके इस ओर तुरंत प्रभावी व सख्त कदम उठाने चाहिये ताकि आने वाली पीढ़ी एक स्वस्थ जीवन जी सकें।

 

लेखक शरद गोयल ‘विचार परिक्रमा’ पत्रिका के सम्पादक है।      

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