आज देश को आजाद हुये लगभग 66 साल हो गये हैं और इन 66 सालों में लगभग 60 साल कांग्रेस व कांग्रसियों ने राज किया। आज देश के किसी भी पहलु की स्थिति के लिये प्रत्यक्ष रूप से चाहे वह अच्छी हो या बुरी, कांग्रेस को ही जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। राज्यों में भी कमोवेश यही स्थिति रही है कि अधिकतर राज्य इस दौरान कांग्रेस या साथ चलने वाले दलों का शासन रहा है। फिर अचानक किसानों की दशा को लेकर कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी इतने चिंतित क्यों हो गये? रातों रात कैसे कांग्रेस को किसान प्रेम नजर आने लगा व अपने आपको किसान हितैषी पार्टी के रूप में महिमा मण्डित करने लगी। दरअसल इन 66 सालों में न केवल किसान बल्कि अल्पसंख्यक दलित, गरीब आदि समाज के सभी लोगों के स्तर में गिरावट आयी है। जिसके लिये प्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस को ही जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। दरअसल कृषि प्रधान देश होने के बावजूद भी किसी भी राजनैतिक पार्टी ने कभी भी किसानों की समस्याओं पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया और सिर्फ इसको एक चुनावी मुद्दा बनाये रखा और इनको बरगलने के लिये नये-नये सुर्रे छोड़ने का प्रयास किया। उनकी मूल भूत समस्याओं के निपटारे की ओर कभी ध्यान नहीं दिया। आज राहुल गांधी महाराष्ट्र और विदर्भ के किसानों की आत्महत्या की बात करते हैं लेकिन यदि आंकड़ों की बात करें तो आंकड़े बताते हैं कि पिछले दस साल में 296438 आत्महत्याऐं हुईं हैं।
1700ई0 में सोने की चिड़िया कहलाने वाले देश की मात्र दो शताब्दियों में यह हालत होे जाये कि वहां का किसान लाखों की तादाद में आत्महत्या के लिये मजबूर हो जाये और जो बच भी गये हैं, वह कर्जे में डूब गये। पिछले दिनों पंजाब में पटियाला की एक यूर्निवसिटी द्वारा किये गये शोध के अनुसार 80 प्रतिशत किसान कर्जे में डूबे हुये हैं। यह हाल तो जब है कि जब देश का 52 से 53 प्रतिशत नागरिक सीधे-सीधे कृषि से संबंधित है, जबकि यू.के. में कृषि पर आधारित जीवन मात्र 1.2 प्रतिशत है, यू.एस.ए. में 1.6 प्रतिशत, जर्मनी में 1.5 प्रतिशत, फ्रांस
में 2.9 प्रतिशत, इटली में 3.7,स्पेन में 4.4 प्रतिशत, जापान में 3.7 प्रतिशत, यहां तक कि चाइना में भी कृषि पर निर्भरता मात्र 34.8 प्रतिशत है। ब्राजील व रसिया भी 15.3 और 9.7 प्रतिशत तक हैं। देश की आधी से अधिक जनसंख्या कृषि पर निर्भर है और कृषि क्षेत्र में सरकारों की खोखली नीति ही किसानों को आत्महत्या के लिये मजबूर कर रही है।
यदि हम कर्जे की बात करें तो मुझे ऐसा लगता है कि कर्जा माफी किसानों का स्थायी समाधान नहीं है क्योंकि आंकड़े बताते हैं कि सरकार ने जब-जब ऐसी योजनायें बनाईं तब-तब इनकी आत्महत्याओं की दर में कोई कमी नहीं आयी। किसानों को ऋण देने का प्रावधान पिछले 8 सालों में दो लाख करोड़ से 8 लाख करोड़ का हो गया। 2008 में सरकार ने किसानों के सभी कर्ज माफ कर दिये लेकिन हकीकत यह है कि 2008 में भी देश भर में 16796, 2009 में 17368, 2010 में 15964 किसानों ने आत्महत्यायें की। इससे एक बात तो साफ है कि ऋण माफी से किसानों की समस्या का सरकार द्वारा गठित स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों ने भी कृषि की हालात व उपाय, किसानों की समस्या के बारे में नहीं बताये लेकिन रिपोर्ट से एक बात तो साबित हो गयी कि भारत में कृषि कोई लाभकारी उद्योग नहीं है। यदि किसानों की न्यूनतम वेतन का भी हिसाब लगाया जाये तो भी सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन पाने में किसान कृषि पर निर्भर रह कर असमर्थ है। जब तक खेती लाभकारी नहीं होगी तब तक देश का किसान तीन श्रेणियों में बंटा है- एक हेक्टेयर से कम, एक हेक्टेयर से दो हेक्टेयर तक व दस हेक्टेयर से अधिक।
निचली श्रेणी के किसान के पास इतने साधन नहीं हैं कि अपने लिये भी अनाज पैदा करें और बाजार में बेच पायें। यदि यह बाजार में नहीं बेच पाये तो डैच् का लाभ इनको नहीं मिलेगा। कृषि के बागवानी और फूल वाली ये जो दो क्षेत्र हैं इनके लिये स्पेशल किसान को स्पेशल देख-रेख चाहिये, उसी तरह इनका बाजार है
लेकिन ये देश की आवश्यकता को नहीं पूरी कर सकते क्योंकि देश की आवश्यकता तो अनाज उत्पादन से ही पूरी होगी। कृषि उत्पादक दर बढ़ानी होगी, उत्पादन की लागत कम करनी होगी, खेती में जो इनपुट है उनको बाजारवाद की नीति के तहत कृषि में उपयोग होने वाले कीटनाशक, बीज, खाद, सिंचाई का पानी, कृषि यंत्र इन सबको उद्योग का भरपूर लाभ उठाने की छूट दे दी गयी और किसान के उत्पाद को डैच् के तहत प्रतिबंधित कर दिया गया। देश में बीज का व्यापार लगभग 10 हजार करोड़ से अधिक बढ़ गया। खाद का व्यापार भी बढ़ गया हैै। कीटनाशक के व्यापार में भारी प्रगति हुई लेकिन उनसे पैदा होने वाले कृषि उत्पाद आज अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धा से बाहर हैं। पिछले 60 के दशक में देश में हरित क्रांति की बात की गयी जिसके अंतर्गत कृषि की उत्पादकता बढ़ाने की बात की गयी चाहे उसकी गुणवत्ता भले ही कम हो जाये। परिणामस्वरूप भूमि की उत्पादन शक्ति कम हो गयी और कृषि उत्पाद विषैले हो गये। गुणवत्ता को बनाये रखकर उत्पादन बढ़ाने का उद्देश्य रखने की आवश्यकता है। इसलिये पुनः आवश्यकता है कि कृषि क्षेत्र में व्यापक सोच व आधुनिकरण लाने की ताकि गुणवत्ता खत्म न हो और उत्पादन बढ़े। शोध व अंवेशषण का ढांचा विश्वस्तरीय होने के बाद भी दिशाहीन है, इसे सही दिशा देनी होगी। खेती को सुधारने के लिये कृषि वाली योग्य जमीन को टुकड़े-टुकड़े होने से रोकने के लिये कानून बने, जिसमें कम से कम 2 से 4 हेक्टेयर भूमि कृषि योग्य हो। पशुपालन को प्रोत्साहित कर किसान की आय बढ़ाने का एक स्त्रोत बनाना चाहिये। पशुपालन के बढ़ावे से कृषि उत्पादकता में लाभ मिलेंगे। पशुपालन से कई ऐसी सामग्री प्राप्त होगी जिससे कृषि योग्य भूमि की उत्पादकता बढ़ जायेगी।
डेरी प्रोडेक्ट के उत्पाद को बढ़ाने के लिये शोध कार्य व सरकारी इन्फ्रास्र्टक्चर को बढ़ाया जाये। खेती के उत्पादों के आधार पर कुटीर उद्योग की स्थापना होनी चाहिये। उदाहरणतः हथकरघा उद्योग एवं खाद्य, तेल पिराई (कोल्हू उद्योग), फूडप्रोसेसिंग उद्योग आदि जो ग्रामीण क्षेत्रों में आसानी से चल सकते हैं और सरकार को कम से कम इस विषय पर राजनीति न करके, गंभीरता से किसानों की दशा को सुधारने के लिये काम करने पड़ेंगे। समयबद्ध व योजनाबद्ध तरीके से योजना बने और उसके तहत कार्य किये जायें अन्यथा किसान व किसानों की दशा हमेशा राजनेताओं की रोटी सेंकने का जरिया बना रहेगा। राहुल गांधी जैसे नेता एक किसान के घर में जाकर अपनी पीठ थपथपाते रहेंगे और किसान मात्र इमोशनल ब्लैकमेल होता रहेगा। उसकी स्थिति में कोई सुधार नहीं होने वाला है। खाद्य योग्य चीजों के आयात पर बिल्कुल प्रतिबंध लगे व घरेलू बाजार की खाद्य सामग्री को बढ़ावा दिया जाये।
Comments