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यह मायाजाल तो विज्ञापन का है

  • Writer: शरद गोयल
    शरद गोयल
  • Mar 5, 2024
  • 3 min read

मैगी  विवाद थम गया या कहें कि विवाद का प्रचार थम गया पर इस सारे मामले में एक बात सामने आई कि चाहे मैगी हो, कोका कोला, पेप्सी हो या मेक डोनल हो, के एफ सी हो, लेज़ हो या कोई अन्य उत्पाद हो इनकी गुणवत्ता से जुड़े विवादों के लिये क्या जिम्मेदार इनको बनाने वाले ही हैं या इनके गुणों को बढ़ा-चढ़ा कर आम उपभोक्ता तक पहुंचाने वाले विज्ञापन करने वाले वो अति विशिष्ट व्यक्ति चाहे वो फिल्म उद्योग से जुड़े हों, खेल जगत से या अन्य किसी सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त व्यक्ति हों। मेरा ऐसा मानना है कि आम उपभोक्ता के सामने जब कोई उत्पाद आता है तो वह उसकी गुणवत्ता इस बात से परखता है कि इसका विज्ञापन कितना बड़ा व्यक्ति कर रहा है और नतीजे तभी सामने आ जाते हैं कि जितना बड़ा विशिष्ट व्यक्ति उत्पादन का प्रचार करता है, उतनी ज्यादा मात्रा में उत्पाद का इस्तेमाल रातों रात आम उपभोक्ता करने लगता है। पिछले लगभग दो दशकों में जिस प्रकार से जंक फूड या कहें पैक फूड जो कि बहुर्राष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा निर्मित हैं उसका भारत में विस्तार हुआ है, वह बहुत ही हैरान करने वाला है। यही कारण है कि विज्ञापन का बाजार पिछले दो दशकों में इतना ज्यादा बढ़ गया है कि शायद ही विश्व के अन्य देशों की तुलना में भारत में कहीं अधिक है। आंकड़े बताते हैं कि 2010-2011 में ही यह 29400 करोड़ से बढ़ कर 34,670 करोड़ रूपये का हो गया। इन आंकड़ों में यदि अव्यवस्थित तरीके से किया जाने वाले विज्ञापन को भी जोड़ा जाये तो इनकी मात्रा दोगुनी से भी अधिक हो जायेगी। कमोवेश आज बाजार का आलम यह है कि  आपका उत्पाद कितना भी अच्छा, सुंदर, मजबूत क्यों न हो, जब तक वह टी.वी., अखबार व अन्य प्रसार के माध्यमों में वह बार-बार नहीं दिखाया जायेगा तब तक वह आम उपभोक्ता तक नहीं पहुंच पायेगा। यही कारण है कि आचार, पापड़, बिस्कुट, धूपबत्ती से लेकर पुरूषों के अंडर गारमेंटस के विज्ञापन भी बड़े-बड़े फिल्म कलाकारों द्वारा किये जाते हैं। और कुछ में तो उत्पाद की गुणवत्ता को इतना बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया जाता है जो वास्तविकता से बहुत दूर होता है। उदाहरण के तौर पर एक ए.सी. बनाने वाली कम्पनी का विज्ञापन दर्शाता है कि ए.सी. आॅन होने पर नल से टपकने वाला पानी जम जाता है। हालांकि उपभोक्ताओं के हितों का संरक्षण करने वाले कानून ये कहते हैं कि यदि किसी उत्पाद की गुणवत्ता को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाया जाता है तो आप उसकी शिकायत कर सकते हैं। लेकिन शिकायत करें किसे? शायद आपको मालूम नहीं दूरदर्शन पर किसी भी प्रकार से सेंसर बोर्ड को कोई नियंत्रण नहीं है। खाना पूर्ति के लिये टी.वी.चैनलों ने ए एस सी आई व बी एस सी आई जैसी संस्थायें बना रखी हैं जो सेल्फ रेगुलेटरी हैं। कानूनी तौर पर उनको कोई अधिकार नहीं है। मेरा मानना है कि विज्ञापन को प्रस्तुत करने वाला कलाकार या विज्ञापन बनाने वाली कंपनी सभी चीजों का सत्यापन करें, जिनका विज्ञापन के अंदर क्लेम किया गया है। उदाहरण के तौर पर ईमामी क्रीम का विज्ञापन अमिताभ बच्चन करते समय बोलते थे कि 50 करोड़ भारतीय सर्दी से बचने के लिये लगाते हैं ईमामी का सफेद टीका। अमिताभ बच्चन के व्यवसायिक दिमाग ने ईमामी से मिलने वाले पैसे के वज़न में इतना भी काम नहीं किया कि 50 करोड़ भारतीय तो ठीक -ठाक भोजन भी नहीं कर पाता है तो वह ईमामी क्रीम कहां लगायेगा? मैंने इस विषय को उठाया, एक साल तक पत्राचार किया उसके बाद एएससीआई ने ईमामी से 50 करोड़ का ैवनतबम  पूछा जिसको बताने में ईमामी विफल रहा और अमिताभ बच्चन ने 50 करोड़ बोलना बंद कर दिया। इसी प्रकार हुंडई की एक कार शाहरूख खान सड़क पर टेढ़ी-मेढ़ी चलाते हैं और गाड़ी की नम्बर प्लेट की जगह आई 10 लिखा होता है जो कि भारतीय मोटर व्हीकल एक्ट के अनुसार गल्त है। मेरे द्वारा कानूनी कार्यवाही की धमकी दिये जाने पर विज्ञापन दाता कम्पनी ने गाड़ी के नाम की बजाय नम्बर प्लेट पर रेजिस्ट्रेशन नम्बर लिखना शुरू कर दिया। लेकिन अभी भी कुछ विज्ञापन इस प्रकार के आते हैं जिनपर गाड़ी के नम्बर की बजाय ब्रांड लिखा होता है। किसी भी विज्ञापन में जिसमें कोई कार या बाइक द्वारा स्टंट दिखाया जाता है उसमें वैधानिक चेतावनी लिखना आवश्यक है। इतना ही नहीं लगभग 60 प्रतिशत विज्ञापन ऐसे हैं जिनमें वैधानिक चेतावनी लिखना आवश्यक है। काले को गोरा करने वाली क्रीम, वजन कम करने वाली दवाएं हों या फिर बालों को झड़ने से रोकने वाली , बाल लम्बा करने वाली इत्यादि-इत्यादि लगभग 60 प्रतिशत इनमें वैधानिक चेतावनी आवश्यक है। लेकिन विज्ञापन दाताओं द्वारा यदि ये चेतावनियां नहीं लिखी जाती हैं तो भी इस देश में काम चल जाता है और अगर लिखी होती हैं तो इतनी छोटी लिखीं होती हैं जो पढ़ने योग्य नहीं होती हैं। एक सूचना के जवाब में मुझे बताया गया कि वैधानिक चेतावनी का साइज 4 मेगा पिक्सल व 10 सैकेंड है। जबकि अधिकतर विज्ञापनों में न तो वह 10 सैकेंड होता है न ही साइज 4 मेगा पिक्सल होता है। एक संसदीय सूचना में तत्कालीन संसदीय सूचना व प्रसार मंत्री जी ने बताया था कि क्योंकि अभी टेलीविजन का पूरी तरह से डीजिटलाइजेशन नहीं हुआ है, इस कारण से हम इन पर कोई नियंत्रण नहीं रख सकते हैं। इसी प्रकार किसी सिनेमा का विज्ञापन के दौरान उस सिनेमा को सेंसर बोर्ड से क्या सर्टीफिकेट मिला हुआ है, मसलन न्ध्।  है या ।  है उस सिनेमा के विज्ञापन के दौरान टी.वी. स्क्रीन पर प्रदर्शित होना चाहिये। दरअसल आम व्यक्ति टी.वी. पर इन सभी चीजों को नहीं देखता है, वह तो विज्ञापन कौन कर रहा है इस पर ध्यान लगाता है। जरूरत है एक रेगुलेटरी आथोरिटी बने जो इस चीज पर ध्यान दें जो भी अति विशिष्ट व्यक्ति जिसके माध्यम से आम जन को प्रभावित किया जा सकता है उसको विज्ञापन करने से पहले उनकी गुणवत्ता पर पूर्ण ध्यान देना चाहिये। भारत रत्न देश का सर्वोच्च सम्मान है और उस भारत रत्न को प्राप्त करने वाले सचिन तेंदुलकर यदि कोई विज्ञापन करते हैं तो देखने वाला सिर्फ और सिर्फ सचिन तेंदुलकर की बात मानता है न कि उस उत्पादन की गुणवत्ता की ओर जाता है। जहां तक सवाल टी.वी. और अखबारों का है तो यहां पर तो बड़ी खबर छोटी खबर को खा जाती है। जो खबर मुख्य पृष्ठ पर छपती थी, वह दो दिन बाद तीसरे पृष्ठ पर छपती है और तीन दिन बाद गायब हो जाती है। समस्या ज्यों की त्यों ही रहती है। जितनी आवश्यकता उत्पादन की गुणवत्ता को जांचने की है उससे कई ज्यादा आवश्यकता प्रचार माध्यमों द्वारा किये जा रहे विज्ञापन भ्रामक तो नहीं इस बात को सुनिश्चित करने की भी है। और यह जिम्मेवारी सभी प्रचार माध्यमों के मालिकों की बनती है। एक एक्ट के मुताबिक सभी काले को गोरा करने वाली क्रीमों के विज्ञापन के नीचे यह लिखना आवश्यक है कि कोई भी क्रीम काले को गोरा नहीं कर सकती है। लेकिन आपने कभी इस लाइन को नहीं पढ़ा होगा। आवश्यकता है कि उपभोक्ताओं के हितों को सर्वोपरि समझ कर इन सभी बातों के लिये कानून बनें। विज्ञापनों पर नजर रखने के सख्त से सख्त कानून बनें ताकि विज्ञापन के मायाजाल में फंस कर उपभोक्ता इस प्रकार की वस्तुओं का सेवन न करें जो उनके स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हों। चाहे फिर विज्ञापन दाता कितना भी बड़ा प्रतिष्ठित व्यक्ति क्यों न हो?

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