वायु प्रदूषण ऐसे नहीं मिलेगा इस जहर से छुटकारा
- शरद गोयल
- Dec 14, 2024
- 3 min read
Updated: Mar 5
पिछले कई दिनों से चल रही असहनशीलता पर चर्चा व बहस के बाद एक दम देश की राजधानी के सामने पर्यावरण की समस्या ने फिर से अपना विकराल रूप धारण कर लिया या यूं कहिये कि समस्या तो वहीं की वहीं थी लेकिन इलैक्ट्रोनिक मीडिया को अन्य विषयों से हटकर इस समस्या का ध्यान आ गया है और अचानक क्षेत्रीय व राष्ट्रीय मीडिया के साधनों में पर्यावरण पर चर्चा फिर से चलने लगी। दिल्ली व एन सी आर में पर्यावरण या कहिये प्रदूषण के बढ़ने पर गंभीर परिणाम व भयावह आंकड़े प्रदर्शित होने लगे। हालांकि यह आंकड़े वाकई भयानक हैं।किसी भी स्वास्थ्य के प्रति जागरूक व्यक्ति को यह आंकड़े डरा देंगे परंतु क्या स्थिति इन डराने वाले आंकड़ों तक रातों रात पहुंच गयी या मीडिया इस सिथति के बारे में जागरूक तब होता है जब उनको यह न्यूज या तो फिलर की तरह दिखानी होती है या देश का उच्चतम न्यायालय इस पर कोई संज्ञान लेता है। अगर मीडिया इन आंकड़ों पर गंभीर होता और हमारे राजनेता इस ओर जागरूक होते तो इन आंकड़ों की स्थिति यह नहीं होती जो कि अब है। आंकड़ों की ओर जायें तो यह आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली के वातावरण में धूल इत्यादि के कण मानक मापदण्ड 100 माइक्रोग्राम से कम होने की बजाय चार गुने से भी अधिक स्तर - 427 माइक्रोग्राम - पर है। इस कारण दिल्ली में अस्थमा और फेफड़ों के कैंसर के पीड़ितों की संख्या देश के औसतन से कहीं ज्यादा है। अनीमिया और कैंसर के कारण बैनजीन दिल्ली के हवामान में अपनी सुरक्षा सीमा 5 माइक्रोग्राम से ऊपर लगभग दस माइक्रोग्राम हो चुका है। यही नहीं बल्कि श्वसन तंत्र को क्षति पहुंचाने वाला नाइट्रोजन डाईआक्ॅसाइड भी प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड द्वारा तय सीमा से दोगुने स्तर पर जा पहुंचा है। अब जरा इन आंकड़ों के बाद इस बात पर भी ध्यान कर लें कि इनके दुष्प्रभाव से आम जन के स्वास्थ्य पर क्या-क्या असर पड़ता है। आंखों में जलन , अस्थमा, वाइरल यहां तक कि एक रिपोर्ट के हिसाब से मानें तो कैंसर के लिये भी हवा में इन गैसों का बढ़ना भी एक बहुत बड़ा कारण है। हम सिर्फ इस सारी चर्चा में वायु प्रदूषण की बात कर रहे हैं लेकिन मेरा ऐसा मानना है कि दिल्ली में एक और प्रदूषण बुरी तरह से मुंह फैलाये खड़ा है और वो है दिलली के भू-जल का प्रदूषित होना। इसका मुख्य कारण यमुना नदी का गंदे नाले के अंदर तबदील होना और जगह-जगह पर सुचारू सीवर व्यवस्था के अभाव मे गंदे पानी का खड़ा होना। जिसके कारण गंदा सड़ा हुआ पानी भू-जल में आहिस्ता-आहिस्ता मिल जाता है और भू-जल की गुणवत्ता खराब हो रही है। उसके लिये बड़ी मात्रा में दिल्ली में निकलने वाली ऐसी नालियां भी हैं जिनकी आजतक कभी सफाई भी नहीं हुई व उनका सड़ा हुआ पानी भू-जल में जा रहा है। वायु प्रदूषण का कोई विकल्प नहीं है और भू-जल प्रदूषण का विकल्प आर ओ व मिनरल वाॅटर है, इस कारण वायु प्रदूषण की चर्चा ज्यादा की जाती है। दिल्ली और एन सी आर को मैं ऐसा क्षेत्र भी नहीं मानता जहां पर बड़े पैमाने पर वृक्षों को काटा जा रहा हो। हालांकि रोजमर्रा की भाषा में ये बात अच्छी लगती है कि प्रदूषण इस लिये हो रहा है कि पेड़ काटे जा रहे हैं अपितु एक अनुमान के मुताबिक दिल्ली में तो इसके विपरीत लगभग 5000 के करीब छोटे-बड़े पेड़ व पौधे रोज लगाये जाते हैं। अब दूसरा कारण हो गया कि दिलली में वाहनों की बढ़ती हुयी संख्या। इससे भी मैं बहुत ज्यादा सहमत नहीं हूं। क्योंकि विश्व के बहुत से उन्नत देशों में ऐसे शहर हैं जहां पर वाहनों की संख्या दिल्ली से बहुत अधिक है और प्रदूषण दिल्ली से कई गुणा कम। फिर ऐसा कौन सा कारण है जो दिल्ली में प्रदूषण की समस्या दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। मेरे विचार से धूल कणों के लिये जिम्मेवार प्रशासन है और कोई नहीं। दिलली में और आस-पास के क्षेत्र गुड़गांव, फरीदाबाद, सोनीपत, गाजियाबाद आदि में प्रशासन के लोग धूल के प्रति संवेदनशील नहीं हैं। यहां तक कि राष्ट्रीय राजमार्ग एन एच ए आई जैसी देश की प्रतिष्ठित ऐजेंसियां भी अपने प्रोजेक्टों में इस बात का बिल्कुल ध्यान नहीं रखती कि प्रोजेक्ट चलते हुये या बाद में धूल बिल्कुल न उड़े। जितने भी लोक निर्माण विभाग हैं उनको धूल के प्रति विशेष तौर पर संवेदनशील होना पड़ेगा। यदि स्ट्रीट लाइट के पोल के लिये खड्ढा खोदने वाला उस खड्ढे से निकले हुये धूल को वहीं सड़क पर डाल कर उस धूल को गाड़ियों द्वारा उड़ने पर मजबूर कर देगा तो उस व्यवस्था में किस प्रकार से धूल की मात्रा वातावरण में कम हो सकती है।मैं यहां पर यह भी कहना चाहूंगा कि हमारी सफाई व्यवस्था विशेषतः झाड़ू लगाना भी धूल कण को वायुमण्डल में उड़ाने के लिये बहुत हद तक जिम्मेदार है। अब तो सरकार ने स्वच्छ भारत पर स्वच्छता टैक्स भी लेना शुरू कर दिया है। सरकार को झाड़ू व्यवस्था को कम करके धूल को सक्षण करने वाली मशीनों का इस्तेमाल आहिस्ता-आहिस्ता शुरू करना चाहिये। जिससे झाड़ू द्वारा धूल कणों का वायुमण्डल में फैलने से रोका जा सके। मीडिया द्वारा इतना हंगामा होने के बावजूद भी सरकार ने धूल को सड़कों से हटाने के लिये कोई ठोस योजना नहीं बनायी। सड़कांे के किनारे पड़े हुये कच्चे क्षेत्र को किसी भी प्रकार से कवर करना निहायत ही जरूरी हो चाहे उसके लिये प्रोजैक्ट की कीमत कितनी भी बढ़ जाये। ऐसे क्षेत्र जहां पर बहुत धूल उड़ती है वहां पर अपीने योग्य पानी द्वारा छिड़काव भी किया जा सकता है। प्रदूषण नियंत्रण विभाग द्वारा तय सीमा से अधिक प्रदूषण फैलाने वाले वाहनों को सख्ती से जब्त कर लिया जाये। गंदी गैस निकालने वाली औद्योगिक इकाइयों को तुरंत प्रभाव से दिल्ली से सील कर दिया जाये। कूड़ा-कर्कट जलाने को रोकने के लिये थाना क्षेत्र पर टीम बनायी जाये और ऐसे करते हुये पाये जाने वालों के खिलाफ सजा व जुर्माना दोंनो किया जाये। रसायन युक्त पानी किन्हीं भी हालातों में भू-जल से न मिले, इसके पुख्ता प्रबंध करने चाहियें। मात्र वाहनों को प्र्यावरण की समस्या के लिये दोषी करार करना मुझे लगता है ठीक नहीं होगा। यदि आंकड़ों की मानें तो एन सी आर में प्रत्येक 1000 व्यक्ति पर 40 वाहन हैं जबकि चीन में यह संख्या 90 वाहनों की, इंडोनेशिया में 85 वाहनों की, श्रीलंका मंे 55 वाहनों की, तजाकिस्तान में 85 वाहनों की है। और इन सभी शहरों में वायु प्रदूषण की स्थिति दिल्ली से बेहतर है। तो इन आंकड़ों से यह तो साफ है कि मात्र वाहन ही पर्यावरण के लिये दोषी नहीं है। वाहनों द्वारा निकलने वाले धुएं की सख्ती से जांच हो और प्लास्टिक जैसे कचरे को जलाने पर सख्ती से कार्यवाही की जाये। धूल नियंत्रण के लिये अलग से विभाग बने। तभी जाकर इस क्षेत्र में कोई सकरात्मक काम हो सकता है। अन्यथा लोगों को तो जीना है यदि ग्राउंड वाटर गंदा हो गया हो तो घर में आर ओ लगा लिया। वायु प्रदूषण बिगड़ गया तो घर में एयर फिलटर लगा लेंगे। अदालतें सरकारों से जवाब मांगती रहेंगी। सरकारें अदालतों की डांट खा-खा कर पक जायेंगी और समस्या जस की तस रहेगी।
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