वाह रे! इलेक्ट्रोनिक मीडिया
याकूब मेनन को 22 साल के बाद फांसी की सजा सुना दी गयी और फांसी का सारा कार्यक्रम और औपचारिकतायें मोटा-मोटी तौर पर शांतिपूर्वक निपट गयीं लेकिन इस सारे प्रकरण में भारत के इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने जिस प्रकार से अपनी भूमिका निभाई, उसकी विवेकशील समाज में किसी भी प्रकार से तारीफ नहीं की जा सकती। दरअसल तो इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने पिछले 5 साल में अपनी टी आर पी को बढ़ाने के कारण ऐसे बहुत से मौके दिये हैं जिनमें संवेदनशीलता की हदों को पार किया। सच बात पूछें तो चाहे मुद्दा आसाराम जी का हो, गोपाल कांडा का हो, रामपाल या ललित मोदी जी का हो, व्यापम घोटाला हो या कोई ओर। सच में तो कितने गिनवायें मीडिया द्वारा हर 24 घंटे में एक नया मुद्दा लेकर उसे खींचा जाता है और सैंकड़ों लोगों को नयी-नयी पोशाक पहनकर टी वी चैनलों के माध्यम से उस मुद्दे पर बहस के लिये बुलाया जाता है। पिछले दिनों ललित मोदी प्रकरण को जिस तरह से मीडिया ने प्रस्तुत किया, वह कोई सराहनीय नहीं था। समाज के एक वर्ग को सारी नुरकुश्ती में अपने को टी वी पर दिखाने की एक ललक सी हो गयी है और जिन्हें यह ललक है उन्हें ये लगता है कि कुछ भी बोल कर अपने को टी वी पर दिखाना है। याकूब मेनन की फांसी की न्यूज रिर्पोटिंग भी उसी का एक हिस्सा थी । आश्चर्यचकित था मेरे लिये जब मैंने कल टी वी चैनलों के माध्यम से यह देखा कि याकूब मेनन को कितने बजे उठाया जायेगा, कब सुलाया जायेगा, क्या पहनाया जायेगा और क्या खिलाया जायेगा ? एक टी वी चैनल पर कुछ विशेषज्ञों की टीम में एक विशेषज्ञ यह बोल रहे थे कि मेनन को दफनाते समय यदि मुंबई में कुछ बलवा होता है तो मुंबई पुलिस को क्या करना चाहिये और क्या-क्या कर सकती है? यह सारा देखकर इतना हास्यासपद लगा कि उसके लिये कोई शब्द नहीं हैं। अपनी बाइट टी वी पर दिखाने की भूख जितनी इन नेताओं को है उतनी शायद किसी ओर को हो। कुछ लोगों को तो टी वी पर दिखने की जैसे मानसिक बीमारी हो गयी हो, उसके लिये चाहे उनको कुछ भी उल्टा सीधा क्यों न बोलना पड़े। लालू प्रसाद यादव और दिग्विजय सिंह इसके बहुत बड़े उदाहरण हैं। सच बात तो यह यह है कि इसके लिये दोषी सभी मीडियाकर्मी हैं क्योंकि यह बात भी तय है कि अगर ये नेता कुछ रेलेवेंट बोलेंगे तो शायद मीडियाकर्मी इनकी बाइट न दिखायें। तो इनको अपनी बाइट दिखाने के लिये कुछ न कुछ उल्टा-सीधा बोलना पड़ता है, नही ंतो ये टी वी पर दिखेंगे नहीं और टी वी पर दिखे बिना इनको नींद नहीं आएगी।
लेकिन क्या आम नागरिक कोई मनोरंजन चैनल देख रहा जो दिल बहलाने के लिये इस तरह बकवास बातें सुनी जायें। ये सभी इलेक्ट्रोनिक मीडिया वालों को सोचना होगा कि जिन लोगों का उद्देश्य ही सिर्फ उल्टी-सीधी बातें बोलकर टी वी पर दिखना है और जन साधारण की भावनाओं के विरूद्ध बोलना है, उनको अपने चैनल पर दिखायें या नहीं। ओसामा बिन लादेन को ‘ओसामा जी’ कहने वाले दिग्विजय और बाटला हाउस एनकांउटर पर सवाल करने वाले दिग्विजय और न जाने कितने उदाहरण हैं माननीय दिग्विजय जी के। ऐसा नहीं है कि इस तरह के लोगों को इस बात का एहसास नहीं है कि वो सही बोल रहे हैं कि गल्त। पर इन्हें तो टी वी पर दिखने का अपना शौक पूरा करना है। अपनी पत्नी की हत्या की साजिश में संदिग्ध शशि थरूर अपने को एक बुद्धिजीवी मानते हैं और समाज और राजनीति की हर घटना पर अपने विचार व्यक्त करते हैं। उन्होंने भी लगे हाथों फांसी का विरोध कर डाला। और सभी न्यूज चैनलों ने दबा कर उनकी बाइट दिखाई। यदि वो कोई सकरात्मक बात कहते तो शायद उनकी बाइट को मीडिया नहीं दिखाता। सच में तो सवाल या निशान मीडिया की भूमिका पर है न कि बयान देने वाले सिरफिरों की। क्योंकि उनका उद्देश्य तो अपनी शक्ल टी वी पर देखकर पूरा हो जाता है। वैसे तो उद्देश्य न्यूज चैनलों का भी अपवादित बयानों से फैली उत्तेजना के जरिये अपनी टी आर पी को बढ़ाना है। पिछले 24 घंटों में भारत रत्न भारत के पूर्व राष्ट्रपति डा0 अब्दुल कलाम जी की अंतेष्ठी की खबर न्यूज चैनलों पर लगभग 20 प्रतिशत स्थान ही ले पायी। जबकि 80 प्रतिशत स्थान याकूब मेनन की फांसी ने लिया। वो दिन दूर नहीं जब आम दर्शक इस तरह की रिर्पोटिंग से दुःखी होकर न्यूज चैनलों को देखना बंद कर देगा। मेरी अपनी इस जानकारी के अनुसार देश के युवा वर्ग का इन्हीं कारणों से न्यूज चैनलों को देखने का रूझान न के बराबर है। यह कोई अच्छा संदेश नहीं है। सभी इलेक्ट्रोनिक न्यूज चैनलों को इस ओर गंभीरता से विचार करना चाहिये। टी आर पी की लड़ाई को छोड़ राष्ट्रहित व समाजहित किस में है, वह रिर्पोटिंग करनी चाहिये।
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