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संभलो अभी देर नहीं हुई

Writer's picture: शरद गोयल शरद गोयल

दिल्ली में आम आदमी पार्टी की भयंकर बहुमत वाली सरकार को बने अभी कुछ दिन ही हुये हैं और आम आदमी पार्टी में मतभेद घमासान तक पहुंच गया है। योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण केजरीवाल गुट पर आरोप लगा रहे हैं। नतीजा पार्टी का अंदरूनी कलह जग जाहिर हो गया और दोनों पक्ष अपने-अपने को सहीे साबित करने का प्रयास कर रहे हैं। इस कलह ने एक ओर जहां आम मतदाता को पूर्ण रूप से निराशा की ओर धकेल दिया है वहीं दूसरी ओर यह सवाल उठता है कि देश में बदलाव की हुंकार भरने वाले ये लोग अंदर से इतने कमजोर थे कि एक अपंग सी विधान सभा का ताज पहनने पर ही इनका सारा अनुशासन व दावे धराशायी हो गये। देश में बदलाव की बातें करने वाले और राजनीति के नये मायने सिखाने वाले इन लोगों को आखिर यह क्या हो गया । मैं उन आरोपों व प्रत्यारोपों की यहां चर्चा नहीं कर रहा हूं जो कि योगेंद्र यादव गुट-केजरीवाल गुट पर लग रहा है। मैं इस सारे प्रसंग को एक मतदाता के दृष्टिकोण से देख रहा हूं। आपको याद होगा कि 10 दिसम्बर 2013 को छपे मेरे लेख ’राह आसान नहीं आपकी’ में मैंने यही शंकायें जताईं थी जो आज सामने आ रही हैं। यहां यह सवाल भी उठता है कि क्या देश में बदलाव की बातें करने वाले राजनेता इतने खोखले और दोगले होते हैं कि सŸाा की थोड़ी ही चकाचैंध से ही इनका संयम डगमगा जाता है। इनको आपस में लड़ने से पहले एक बार उस युवा मतदाता के बारे में सोचना चाहिये, जिसने स्कूल, कालेज व नौकरी से छुट्टी लेकर इनका प्रचार किया व एक जुनूनी की तरह अपना तन मन धन इस पार्टी को खड़ा करने में दिया। वह जो 18 साल से 40 साल का युवक दिन रात आम आदमी पार्टी के लिये लगा रहा उनका क्या होगा? अगर आम आदमी पार्टी का प्रयोग इस प्रकार विफल हो जायेगा तो मुझे डर है कि देश के युवकों का इस राजनीतिक व्यवस्था से पूरी तरह से मोह भंग हो जायेगा। मैंने अपने लेख में यही शंकायें जाहिर की थीं कि आम आदमी पार्टी को बहुत ही अनुशासन में रहने की आवश्यकता है चाहे उसके लिये कितना भी त्याग करना पड़े। यह किसी एक के व्यक्तिगत स्वाभिमान का सवाल नहीं है,


यह देश के राजनैतिक भविष्य का सवाल है। आम आदमी पार्टी का प्रयोग यदि विफल भी हो जाता है तो भी देश चलेगा लेकिन युवाओं के मोह भंग का परिणाम अच्छा नहीं होगा। आम आदमी पार्टी को चाहिये कि देश के वयोवृद्ध व अनुभवी लोगों की एक टीम बनाकर उनका मार्गदर्शन लें व उनके निर्देशों का पालन करें । फिर चाहे उनके द्वारा दिये गये निर्देशों द्वारा किसी का व्यक्तिगत स्वाभिमान भी आड़े क्यों न आता हो।


दुःख की बात तो यह है कि ऐसे समय में केजरीवाल मैदान छोड़कर इस सारे घटनाक्रम से अपने को दूर रखकर विश्राम पर चले गये यह उनकी अनुभव हीनता को दर्शाता है। केजरीवाल पर पहले दिन से ही यह आरोप लगता आया है कि वह एक तानाशाह की भांति काम करते हैं। केजरीवाल को समझना चाहिये था कि वह सारी परिस्थितियों का सामना करते और पार्टी में पैदा हुये इस असमंजस को दूर करने का प्रयास करते । परिस्थितियों के पलायन से कभी परिस्थितियां सुधरती नहीं हैं, यह बात शायद केजरीवाल नहीं समझ पा रहे हैं। एक तो वैसे ही दिल्ली के मुख्यमंत्री के पास सीमित अधिकार हैं और इसके चलते दिल्ली के मुख्यमंत्री अधिक कुछ करने की स्थिति में नहीं हैं, दूसरा पार्टी के भीतर मतभेदों का होना आम मतदाता को निरूत्साहित करता है। केजरीवाल को समझना होगा कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में लोकतांत्रिक तरीके से ही पार्टी चलती है, न कि तानाशाही से। पार्टी का अंदरूनी कलह जितनी जल्दी निपटेगा उतनी ही जल्दी आम आदमी पार्टी व उस मतदाता के लिये जिन्होंने इस पार्टी को समर्थन दिया है, अच्छा होगा। क्योंकि अब एक बात तो साफ हो गयी है कि भारत का नागरिक मात्र मतदान करके अपनी जिम्मेवारी पूरी नहीं समझता अपितु मतदान के बाद भी राजनेताओं की गतिविधियों पर पैनी नजर रखता है और उनको गल्ती सुधारने का दूसरा मौका नहीं देता। अगर आम आदमी पार्टी ने अंदरूनी कलह को जल्द से जल्द खत्म नहीं किया और अनुशासन नहीं बनाया तो पूरे देश में अपनी सरकार बनाने का सपना लिये कहीं दिल्ली की अपंग विधानसभा में ही सीमित न रह जाये।

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