सिर्फ बयानों से नही चलेगा काम
- शरद गोयल
- Mar 5, 2014
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13 फरवरी 2014 के दिन को लोकसभा में हुई दुर्घटना को भारतीय लोकतन्त्र के इतिहास में शर्मनाक दिन, काला दिन या बेहद शर्मनाक घटना कहने से शब्दों की औपचारिकता तो सभी दलों के नेताओं ने पूरी कर ली, किन्तु इस दुर्घटना के विषय में मात्र इतना कहने से ही क्या इस दुर्घटना की भरपाई हो पायेगी, जिन संासदों ने इस कार्य को किया उनके खिलाफ क्या कार्यवाही की जाये, जो भविष्य में इस तरह की हरकत संसद के भीतर ना दोहराई जाये इस बात पर चर्चा करने से पहले हमें उन सभी हालातों पर सोचना होगा किन हालातों के रहते 17 सांसदों ने संसद में इस तरह का घृणित कार्य किया, विषय चाहे अलग तेलांगाना राज्य का हो, या खुदरा व्यापार के अन्दर विदेशी निवेश का हो या और कोई ऐसा मुद्दा हो जिसमें सांसद एक मत नहीं हैं, उन पर क्या सरकार का यह दायित्व नहीं बनता कि संसद से बाहर आम सहमति बनाई जाये और आम सहमति के बाद ही इस तरह के बिल को संसद के पटल पर रखा जाये, पिछले लगभग 20 साल से अलग तेलांगाना राज्य का मुद्दा चल रहा है और इस पर राजनीतिक दलों की आम सहमति नहीं बन पाई है। आखिर वह ऐसे कौन से कारण है, जिनकी वजह से इस मुद्दे पर आम सहमति नही बन पा रही है, पिछले दो दशक मे ऐसा नहीं कि देश में नये राज्यों का गठन ना हुआ है, और उन सभी के गठन के समय में भी कमोवेश विरोधाभास सभी राजनैतिक दलों में रहा है, यहाँ पर इस विषय पर चर्चा करना इसलिए ये आवश्यक है कि ऐसे कौन से हालात में जिसमें लोकतन्त्र के सबसे बड़े मन्दिर में इस तरह की घिनौनी हरकत कर रहे हैः उन परिस्थितियों पर प्रकाश डालना अति आवश्यक है, अलग तेलांगना राज्य के बिल को यादि आम सहमति नहीं मिल रही थी तो सरकार को ऐसी कौन सी मजबूरी थी कि इसको सदन के पटल पर रखा गया और सरकार के अपने सांसदों तक ने इस शर्मनाक घटना में हिस्सा किया, पार्टी की टिकट से चुनकर आये सांसदों की मनोस्थिति को भी यदि सत्तारूढ़ पक्ष नही भांप पाता है, तो वह आम जनमानस की भावनाओं को क्या पहचानेंगे, दरअसल सरकार संसद में अपनी बात मनवाने के लिए सिर्फ संख्या बल का प्रयोग करती है, न कि आम जन की भावनाओं का आदर करके कोई ऐसा समाधान जो सभी सांसदों व पूरे देश को मान्य हो, दरअसल यदि 15वीं लोकसभा का इतिहास देखे तो इसमें शर्मनाक घटनाओं का मानो कोई कम्पीटिशन हुआ और हर घटना के बाद सभी बड़े नेताओं का बयान एक चलता है, और कार्य वाही आगे चलती है, लेकिन भविष्य मंे वह घटना दोहरायी जाये इसके लिये ना कोई मार्गदर्शन बनता है, और ना ही कोई आचार संहिता, दरअसल मुझे लगता है, कि किसी आचार संहिता का पालन करना संासदों की व्यक्तिगत गरिमा में कही आता ही नहीः 13 तारीक की घटना का दूसरा पहलू यह है कि सभी 17 सांसदों के खिलाफ क्या कार्यवाही होनी चाहिये सबसे पहले तो सुरक्षा व्यवस्था मे जो चूक हुई सम्बन्धित अधिकारियों को तुरन्त नौकरी से निकाल देना चाहिये और सभी 17 सांसदों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता के अन्र्तगत तुरंत एफ-आई आर लांज करके तुरंत कार्यवाही की जानी चाहिये इतना ही नही इस तरह के मामलों को फास्टट्रैक कोर्ट में चलाकर इन सभी सांसदों को आने वाले चुनाव के लिये आयोग्य घोषित कर देना चाहिये दरअसल सांसदों की मनोस्थिति मुझे लगता है कि संसद में पहुँचने के बाद एक सामान्य नागरिक की तरह नही रह पाती और वह अपने आपको पूरी व्यवस्था से ऊपर मानते हैं, और किसी भी चीज की जिम्मेदारी उन पर लागू नही होती अति महत्वपूर्ण चर्चा के दौरान भी सामान्यतः यह देखा गया है, कि सांसदों की उपस्थिति संसद में नहीं होती है, यदि होती भी है, तो वह बहुत ही गैर जिम्मेदाराना तरीके से संसद में सोते रहते है: सरकारों को चाहिये कि पहले तो संसद में इस तरह का माहोल ही ना बनने दे कि सांसदों को सरकार की किसी बात का विरोध करने के लिये इस हद तक अनुशासन हीनता करनी पड़े, महत्वपूर्ण मुद्दों पर आम राय बनाने का प्रयास करना चाहिये चाहे उसके लिये संसद के बाहर कितनी भी बैठकंे करनी पड़े: और यदि उसके बाद भी संसद में अनुशासन हीनता की कोई कार्यवाही जानकारी में आती है तो उस पर पार्टी लाइन से उपर उठकर सख्त से सख्त कार्यवाही करनी चाहिये बजाय इसके इस तरह की दुर्घटनाओं के बाद अपने चेहरे को बचाने के लिये बयान बाजी करते घूमें।
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