होश में आओ, अभी देर नहीं हुयी
- शरद गोयल
- Mar 9, 2024
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अभी पिछले ही साल सौ साल पूरे कर चुका भारतीय फिल्मउद्योग आज एक आम आदमी को प्रभावित करने वाला उद्योग बन चुका हैः सामान्य व्यक्ति को प्रभावित करने वाले इस तन्त्र में समाज के प्रति जिम्मेदारी का अक्सर अभाव देखा जाता है, यह जानते हुये भी कि इनके द्वारा किये गये हर कार्य को समाज बहुत गम्भीरता से लेता है, और जन मानस के जीवन को प्रभावित करते है। इसका एक बड़ा उदाहरण हाल ही के वर्षो में फिल्मों में इस्तेमाल किये गये गानों में शराब को बड़ावा देना है, आज मैं कहता हॅू कि भारतीय फिल्मों में शराब के इस्तेमाल के प्रदर्शन और सीधा-2 कहें तो शराब को किसी न किसी रूप में प्रमोट करने का प्रचलन हो गया हैः हालाकि ब्लैक एंड वाइहट फिल्मों के जमाने से फिल्मों में अक्सर एकाध फिल्मंे ऐसी होती हैः जिनमें एकाध गाना शराब पर होता हैः उसमें शराब का प्रदर्शन दिखाया होता था, पुराने समय की फिल्मों में भी ‘‘मुझे दुनिया वालों शराबी ना समझो ये लाल रंग कब मुझे छोड़ेगा’’, आदि बहुत से गाने ऐसे पाये जाते थे, लेकिन गत कुछ वर्षो से तो ऐसा लगने लगा है, कि यदि किसी फिल्म में शराब को प्रमोट करने का गाना नहीं है तो वह फिल्म अधूरी सी है, चाहे वह ‘‘चड़ी मुझे तेरी यारी ऐसी, जैसे दारू जैसी, में टली, मैं टली मैं टली हो गयी,’’ और हाल ही के दिनों में एक और गाना बहुत प्रचलित हुआ ‘‘चार बोतल वोडका काम मेरा रोज का’’ और ना जाने ऐसे कितने गाने हैः जिन सभी का यदि मैं नाम लिखने लग जाऊँ तो सारा दिन निकल सकता है, जिन लोगों ने ये फिल्में देखी हैं उन्होंने एक चीज और जरूरी देखी होगी कि यह सभी गाने और इसी तरह के अन्य गानें छोटी उम्र के युवा लड़के-लड़कियों पर अधिक फिल्माये जा रहे हैः और मेरी जानकारी के हिसाब से तो लड़कियों पर इन गानों को फिल्माइस करने की मात्रा ज्यादा हैः मैं फिल्म उद्योग के लोगों की सोच को समझने में असमर्थ हो रहा हॅू कि किस तरह का संदेश यह उद्योग खास तौर से गाने के लेखक हमारे समाज को देना चाहते है, यदि कोई युवा लड़का यह कहता है कि ‘‘चार बोतल वोडका काम मेरा रोज का’’ तो वह क्या संदेश अपने माध्यम से इस विशाल देश के और में तो कहूँ विश्व के सबसे बड़े जवान देश के नौजवानों को देना चाहता है, एक समय था जब फिल्मों में बीड़ी सिगरेट को अनिवार्य रूप से दिखाया जाता था, और खल नायक की पहचान तो होती ही सिगरेट पीने से थी लेकिन कुछ वर्षो से जब विश्व स्वास्थ्य संगठन के दबाव से अन्र्तराष्ट्रीय स्तर पर यह निर्णय किया गया कि बीड़ी सिगरेट तम्बाकू को किसी भी प्रकार से प्रोत्साहित नहीं किया जायेगा, तब जाके इसका इस्तेमाल करने वाले दृश्य फिल्मों में कम दिखाये जाने लगे हैं, तो क्या यहां यह समझा जाये हम उस दिन का इंतजार करें जब विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसी किसी संस्था द्वारा निर्णय किया जायेगा कि शराब पीना स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है, और इसके लिये अन्र्तराष्ट्रीय संस्थायें दबाव डालेंगी तब तक शराब के इस्तेमाल का प्रदर्शन भारत के फिल्मउद्योग के द्वारा इसी रूप से चलता रहेगा, कही वह समय आने तक देर ना हो जाये और हमारी युवा पीड़ी इतनी ज्यादा इस लत की आदी हो जाये कि हमें लगे बहुत देर हो चुकी है। युवाओं में भी अधिकतर महिलाओं और किशोरियों को इस तरह के दृश्यों को जिनमें शराब का उपयोग हो आनन्दमय दिखाया गया है, अधिक इस्तेमाल किया गया हैः यह सब बाते क्या दर्शाती है, क्या मानिकता है हमारे फिल्मउद्योग के बुद्धिजीवियों की यदि उनसे बात करो तो उनका जवाब होता है कि जो बिता है वही हम दिखाते हैः जबकि मेरा मानना ऐसा नहीं है, मेरा मानना है कि जो वह दिखाते है वह बिकता है, कभी-2 सैंसर बोर्ड की भूमिका पर भी आश्चर्य होता है कि पिछले कुछ दिनों न केवल इस मुद्दे पर बल्कि एक स्वस्थ फिल्म निर्माण के माप दण्डों में जो मुद्दे ध्यान में रखने चाहिये उन सभी मुद्दों से सेंसर बोर्ड ने अपना ध्यान हटा रखा है, कभी-2 मुझे ऐसा लगता है कि क्योंकि हमारे देश में शराब के प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से विज्ञापन पर प्रतिबंध है, कहीं शराब निर्माताओं द्वारा यह कोई साजिश तो नहीं, क्योंकि आंकड़े बताते है कि गत कुछ वर्षों में देश में शराब की बिक्री में बहुत ज्यादा वृद्धि हुयी है, देशी निर्माताओं के अलावा विदेशी कम्पनियों द्वारा बनायी गयी शराबों की बिक्री में बहुत ज्यादा वृद्धि हुयी है, एक समाज के माध्यम और उच्च वर्ग के लोगों के तो जीवन शैली का शराब एक हिस्सा बन गयी है,
मेरा मानना है कि समाज के प्रबुद्ध लोगों को, फिल्म निर्माताओं को और सैंसर बोर्ड को इस और गम्भीरता से विचार करना चाहिये, ताकि भारत की पहचान, जोकि युवा देश की तरह बन गयी है, वह एक बीमार देश की तरह से न बन जाये, शराब हमारी संस्कृति और स्वास्थ्य दोनों को नुकसान पहुँचाती है, इस बात का प्रचार - प्रसार आवश्यक है और फिल्म उ़द्योग को फिल्मों में इसके उपयोग और प्रमोशन वाले दृश्यों, गानों को प्रतिबंधित या सीमित कर देना चाहिये, अन्यथा जब तक विश्व स्वास्थ्य संगठन का दबाव आयेगा तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।
शरद गोयल
सम्पादक -विचार परिक्रमा
अध्यक्ष-नेचर इंटरनेशनल
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